धैर्य का परीक्षा 

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श्रीमद भगवत के दसवें स्कन्द में यह कथा इस प्रकार है। 
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एक बार सरस्वती नदी के तक पर यज्ञ करने के लिए बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र हुए। उन लोगों में इस विषय पर विवाद हो गया कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव में सबसे श्रेष्ठ कौन हैं ? 
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उन लोगों ने इस बात की परीक्षा लेने के उद्देश्य से ब्रह्मा के पुत्र ऋषि भृगु को उनके पास भेजा।
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भृगु ऋषि सबसे पहले श्रेष्ठता की परीक्षा लेने के लिए ब्रह्मा जी के पास उनकी सभा में पहुँचे। 
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उन्होंने ब्रह्मा जी के धैर्य का परीक्षा लेने के लिए न तो उनको नमस्कार किया और न ही उनकी स्तुति की। 
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इससे ब्रह्मा जी को क्रोध आ गया लेकिन अपना ही पुत्र समझ कर उन्होंने अपने क्रोध पर नियंत्रण कर लिया।
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इसके बाद वे भगवान शिव की परीक्षा लेने के लिए कैलास में गए। 
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उन्हें देख कर शिव जी बड़े प्रसन्न हुए और उनका आलिंगन करने के लिए अपनी बांहे फैला दिया। 
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लेकिन भृगु जी ने उनका तिरस्कार करते हुए कहा कि “तुम लोक और वेद की मर्यादा का उल्लंघन करते हो, इसलिए मैं तुमसे नहीं मिलता”। 
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यह सुनकर शिव जी इतने क्रोधित हुए कि अपना त्रिशूल उठा कर उन्हें मारना चाहा लेकिन उनकी पत्नी सती जी ने किसी तरह अनुनय-विनय कर उन्हें ऐसा करने से रोका।
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कैलास के बाद भृगु जी भगवान विष्णु की परीक्षा करने के लिए वैकुंठ पहुँचे। 
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उस समय भगवान विष्णु लक्ष्मी जी की गोद में अपना सिर रख कर लेते हुए थे। 
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भृगु जी ने जाकर उनके वक्ष (छाती) पर ज़ोर से एक लात मार दिया। लेकिन भगवान विष्णु उठ बैठे और अपनी शैय्या से उतर कर सिर झुका कर उन्हे प्रमाण किया। 
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उनका स्वागत कर आसन पर बैठने का आग्रह किया साथ ही आगवानी नहीं कर सकने ले लिए क्षमा भी माँगा। 
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इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा कि भृगु जी के चरण अत्यंत कोमल है (इसलिए भगवान के छाती से लगने के कारण चोट लगी होगी) और उनके चरणों की महिमा कहते हुए उन्हें सहलाने लगे। 
उन्हें कहा कि “अब आपके चरणों से चिह्नित मेरे वक्ष:स्थल पर लक्ष्मीजी सदा-सर्वदा निवास करेंगी।” 
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उनके इन वचनों को सुनकर का भाव और भक्ति के उद्रेक से भृगु जी गला रूँध गया और आँखे भर आई। वे कुछ नहीं बोल सके।
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इसके बाद ऋषि भृगु सरस्वती नदी के तट पर ऋषियों के समागम ने आए और तीनों देवों के विषय में अपने सब अनुभव कह सुनाया। 
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उपस्थित ऋषि-मुनियों ने एक स्वर से भगवान विष्णु को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया क्योंकि वे ही शांति और अभय से उद्गम स्थल हैं।
हरि ॐ नारायणा
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