वाल्मीकि द्वारा श्रीगणेश का स्तवन
चतु:षष्टिकोटयाख्यविद्याप्रदं त्वां सुराचार्यविद्याप्रदानापदानम्।
कठाभीष्टविद्यार्पकं दन्तयुग्मं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
गणेश्वर! आप चौंसठ कोटि विद्याओं के दाता तथा देवताओं के आचार्य बृहस्पति को भी विद्या-प्रदान का कार्य पूर्ण करनेवाले हैं। कठ को अभीष्ट विद्या देनेवाले भी आप ही हैं। (अथवा आप कठोपनिषद्रूपा अभीष्ट विद्या के दाता हैं।) आप द्विरद हैं, कवि हैं और कवियों की बुद्धि के स्वामी हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
स्वनाथं प्रधानं महाविघन्नाथं निजेच्छाविसृष्टाण्डवृन्देशनाथम्।
प्रभुं दक्षिणास्यस्य विद्याप्रदं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
आप ही अपने स्वामी एवं प्रधान हैं। बडे-बडे विघनें के नाथ हैं। स्वेच्छा से रचित ब्रह्माण्ड-समूह के स्वामी और रक्षक भी आप ही हैं। आप दक्षिणास्य के प्रभु एवं विद्यादाता हैं। आप कवि हैं एवं कवियों के लिए बुद्धिनाथ हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
विभो व्यासशिष्यादिविद्याविशिष्टप्रियानेकविद्याप्रदातारमाद्यम्।
महाशाक्तदीक्षागुरुं श्रेष्ठदं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
विभो! आप व्यास-शिष्य आदि विद्याविशिष्ट प्रियजनों को अनेक विद्या प्रदान करनेवाले और सबके आदि पुरुष हैं। महाशाक्त -मन्त्र की दीक्षा के गुरु एवं श्रेष्ठ वस्तु प्रदान करनेवाले आप कवि एवं कवियों के बुद्धिनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ
विधात्रे त्रयीमुख्यवेदांश्च योगं महाविष्णवे चागमाञ्ा् शंकराय।
दिशन्तं च सूर्याय विद्यारहस्यं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
जो विधाता (ब्रह्माजी) को वेदत्रयी के नाम से प्रसिद्ध मुख्य वेदों का, महाविष्णु को योग का, शंकर को आगमों का और सूर्यदेव को विद्या के रहस्य का उपदेश देते हैं, उन कवियों के बुद्धिनाथ एवं कवि गणेशजी को मैं नमस्कार करता हूँ।
महाबुद्धिपुत्राय चैकं पुराणं दिशन्तं गजास्यस्य माहात्म्ययुक्तम्।
निजज्ञानशक्त्या समेतं पुराणं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
महाबुद्धि-देवी के पुत्र के प्रति गजानन के माहात्म्य से युक्त तथा निज ज्ञानशक्ति से सम्पन्न एक पुराण का उपदेश देनेवाले गणेश को, जो कवि एवं कवियों के बुद्धिनाथ हैं, मैं प्रणाम करता हूँ।
त्रयीशीर्षसारं रुचानेकमारं रमाबुद्धिदारं परं ब्रह्मपारम्।
सुरस्तोमकायं गणौघाधिनाथं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
जो वेदान्त के सारतत्त्व, अपने तेज से अनेक असुरों का संहार करनेवाले, सिद्धि-लक्ष्मी एवं बुद्धि को दारा के रूप में अङ्गीकार करनेवाले और परात्पर ब्रह्मस्वरूप हैं; देवताओं का समुदाय जिनका शरीर है तथा जो गण-समुदाय के अधीश्वर हैं उन कवि एवं कवियों के बुद्धिनाथ गणेश को मैं नमस्कार करता हूँ।
चिदानन्दरूपं मुनिध्येयरूपं गुणातीतमीशं सुरेशं गणेशम्।
धरानन्दलोकादिवासप्रियं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
जो ज्ञानानन्दस्वरूप, मुनियों के ध्येय तथा गुणातीत हैं; धरा एवं स्वानन्दलोक आदि का निवास जिन्हें प्रिय हैं; उन ईश्वर, सुरेश्वर, कवि तथा कवियों के बुद्धिनाथ गणेश को मैं प्रणाम करता हूँ।
अनेकप्रतारं सुरक्ताब्जहारं परं निर्गुणं विश्वसद्ब्रह्मरूपम्।
महावाक्यसंदोहतात्पर्यमूर्ति कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
जो अनेकानेक भक्तजनों को भव-सागर से पार करनेवाले हैं; लाल कमल के फूलों का हार धारण करते हैं; परम निर्गुण हैं; विश्वात्मक सद्ब्रह्म जिनका रूप है; तत्त्वमसि आदि महावाक्यों के समूह का तात्पर्य जिनका श्रीविग्रह है, उन कवि एवं कवियों के बुद्धिनाथ गणेश को मैं नमस्कार करता हूँ।
इदं ये तु कव्यष्टकं भक्तियुक्तास्त्रिसंध्यं पठन्ते गजास्यं स्मरन्त:।
कवित्वं सुवाक्यार्थमत्यद्भुतं ते लभन्ते प्रसादाद् गणेशस्य मुक्तिम्॥
जो भक्ति -भाव से युक्त हो तीनों संध्याओं के समय गजानन का स्मरण करते हुए इस कव्यष्टक का पाठ करते हैं, वे गणेशजी के कृपा-प्रसाद से कवित्व, सुन्दर एवं अद्भुत वाक्यार्थ तथा मानव-जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
गणपतिस्तवः पाठभेद
ऋषिरुवाच ॥
अजं निर्विकल्पं निराकारमेकं निरानन्दमानन्दमद्वैतपूर्णम् । परं निर्गुणं निर्विशेषं निरीहं परब्रह्मरूपं गणेशं भजेम ॥ १॥
गुणातीतमानं चिदानन्दरूपं चिदाभासकं सर्वगं ज्ञानगम्यम् । मुनिध्येयमाकाशरूपं परेशं परब्रह्मरूपं गणेशं भजेम ॥ २॥
जगत्कारणं कारणज्ञानरूपं सुरादिं सुखादिं गुणेशं गणेशम् । जगद्व्यापिनं विश्ववन्द्यं सुरेशं परब्रह्मरूपं गणेशं भजेम ॥ ३॥
रजोयोगतो ब्रह्मरूपं श्रुतिज्ञं सदा कार्यसक्तं हृदाऽचिन्त्यरूपम् । जगत्कारणं सर्वविद्यानिदानं परब्रह्मरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ ४॥
सदा सत्ययोग्यं मुदा क्रीडमानं सुरारीन्हरन्तं जगत्पालयन्तम् । अनेकावतारं निजाज्ञानहारं सदा विश्वरूपं गणेशं नमामः ॥ ५॥
तमोयोगिनं रुद्ररूपं त्रिनेत्रं जगद्धारकं तारकं ज्ञानहेतुम् । अनेकागमैः स्वं जनं बोधयन्तं सदा सर्वरूपं गणेशं नमामः ॥ ६॥
तमस्स्तोमहारं जनाज्ञानहारं त्रयीवेदसारं परब्रह्मसारम् । मुनिज्ञानकारं विदूरे विकारं सदा ब्रह्मरूपं गणेशं नमामः ॥ ७॥
निजैरोषधीस्तर्पयन्तं कराद्यैः सुरौघान्कलाभिः सुधास्राविणीभिः । दिनेशांशुसन्तापहारं द्विजेशं शशाङ्कस्वरूपं गणेशं नमामः ॥ ८॥
प्रकाशस्वरूपं नमो वायुरूपं विकारादिहेतुं कलाधाररूपम् । अनेकक्रियानेकशक्तिस्वरूपं सदा शक्तिरूपं गणेशं नमामः ॥ ९॥
प्रधानस्वरूपं महत्तत्वरूपं धराचारिरूपं दिगीशादिरूपम् । असत्सत्स्वरूपं जगद्धेतुरूपं सदा विश्वरूपं गणेशं नताः स्मः ॥ १०॥
त्वदीये मनः स्थापयेदङ्घ्रियुग्मे जनो विघ्नसङ्घादपीडां लभेत । लसत्सूर्यबिम्बे विशाले स्थितोऽयं जनो ध्वान्तपीडां कथं वा लभेत ॥ ११॥
वयं भ्रामिताः सर्वथाऽज्ञानयोगादलब्धास्तवाङ्घ्रिं बहून्वर्षपूगान् । इदानीमवाप्तास्तवैव प्रसादात्प्रपन्नान्सदा पाहि विश्वम्भराद्य ॥ १२॥
एवं स्तुतो गणेशस्तु सन्तुष्टोऽभून्महामुने । कृपया परयोपेतोऽभिधातुमुपचक्रमे ॥ १३॥ इति श्रीमद्-गर्ग ऋषिकृतो गणपतिस्तवः सम्पूर्णः ॥
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