दुर्गा सप्तशती और दुर्गा चालीसा का महत्व और देवी के विभिन्न रूप Shree durga chalisa in hindi pdf free download
नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥ निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूं लोक फैली उजियारी॥
शशि ललाट मुख महाविशाला।नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥रूप मातु को अधिक सुहावे।दरश करत जन अति सुख पावे॥
तुम संसार शक्ति लै कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥ अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥
प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥ शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥
रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥ धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। परगट भई फाड़कर खम्बा॥
रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥ लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥
क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥ हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥
मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥ श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥
केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥ कर में खप्पर खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजै॥
सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥ नगरकोट में तुम्हीं विराजत। तिहुंलोक में डंका बाजत॥
शुंभ निशुंभ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥ महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥
रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥ परी गाढ़ संतन पर जब जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥
अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥ ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥
प्रेम भक्ति से जो यश गावें। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥ ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥ शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥ शक्ति रूप का मरम न पायो।
शक्ति गई तब मन पछितायो॥शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥ भई प्रसन्न आदि जगदम्बा।
दई शक्ति नहिं कीन विलम् मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥ आशा तृष्णा निपट सतावें।
मोह मदादिक सब बिनशावें॥
शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥ करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।
जब लगि जिऊं दया फल पाऊं । तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं ॥ दुर्गा चालीसा जो कोई गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥
देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥
॥ इति श्री दुर्गा चालीसा सम्पूर्ण ॥
श्री शीतला चालीसा
दोहा :- जय जय माता शीतला तुमही धरे जो ध्यान। होय बिमल शीतल हृदय विकसे बुद्धी बल ज्ञान।।
घट घट वासी शीतला शीतल प्रभा तुम्हार। शीतल छैंय्या शीतल मैंय्या पल ना दार।।
चौपाई :-
जय जय श्री शीतला भवानी। जय जग जननि सकल गुणधानी।।
गृह गृह शक्ति तुम्हारी राजती।पूरन शरन चंद्रसा साजती।।
विस्फोटक सी जलत शरीरा। शीतल करत हरत सब पीड़ा।।
मात शीतला तव शुभनामा। सबके काहे आवही कामा।।
शोक हरी शंकरी भवानी। बाल प्राण रक्षी सुखदानी।।
सूचि बार्जनी कलश कर राजै। मस्तक तेज सूर्य सम साजै।।
चौसट योगिन संग दे दावै। पीड़ा ताल मृदंग बजावै।।
नंदिनाथ भय रो चिकरावै। सहस शेष शिर पार ना पावै।।
धन्य धन्य भात्री महारानी। सुर नर मुनी सब सुयश बधानी।।
ज्वाला रूप महाबल कारी। दैत्य एक विश्फोटक भारी।।
हर हर प्रविशत कोई दान क्षत। रोग रूप धरी बालक भक्षक।।
हाहाकार मचो जग भारी। सत्यो ना जब कोई संकट कारी।।
तब मैंय्या धरि अद्भुत रूपा। कर गई रिपुसही आंधीनी सूपा।।
विस्फोटक हि पकड़ी करी लीन्हो। मुसल प्रमाण बहु बिधि कीन्हो।।
बहु प्रकार बल बीनती कीन्हा। मैय्या नहीं फल कछु मैं कीन्हा।।
अब नही मातु काहू गृह जै हो। जह अपवित्र वही घर रहि हो ।।
पूजन पाठ मातु जब करी है। भय आनंद सकल दुःख हरी है।।
अब भगतन शीतल भय जै हे। विस्फोटक भय घोर न सै हे।।
श्री शीतल ही बचे कल्याना। बचन सत्य भाषे भगवाना।।
कलश शीतलाका करवावै। वृजसे विधीवत पाठ करावै।। विस्फोटक भय गृह गृह भाई। भजे तेरी सह यही उपाई।।
तुमही शीतला जगकी माता। तुमही पिता जग के सुखदाता।।
तुमही जगका अतिसुख सेवी। नमो नमामी शीतले देवी।।
नमो सूर्य करवी दुख हरणी। नमो नमो जग तारिणी धरणी।।
नमो नमो ग्रहोंके बंदिनी। दुख दारिद्रा निस निखंदिनी।।
श्री शीतला शेखला बहला। गुणकी गुणकी मातृ मंगला।।
मात शीतला तुम धनुधारी। शोभित पंचनाम असवारी।।
राघव खर बैसाख सुनंदन। कर भग दुरवा कंत निकंदन।।
सुनी रत संग शीतला माई। चाही सकल सुख दूर धुराई।।
कलका गन गंगा किछु होई। जाकर मंत्र ना औषधी कोई।।
हेत मातजी का आराधन। और नही है कोई साधन।।
निश्चय मातु शरण जो आवै। निर्भय ईप्सित सो फल पावै।।
कोढी निर्मल काया धारे। अंधा कृत नित दृष्टी विहारे।।
बंधा नारी पुत्रको पावे। जन्म दरिद्र धनी हो जावे।।
सुंदरदास नाम गुण गावत। लक्ष्य मूलको छंद बनावत।।
या दे कोई करे यदी शंका। जग दे मैंय्या काही डंका।।
कहत राम सुंदर प्रभुदासा। तट प्रयागसे पूरब पासा।।
ग्राम तिवारी पूर मम बासा। प्रगरा ग्राम निकट दुर वासा।।
अब विलंब भय मोही पुकारत। मातृ कृपाकी बाट निहारत।।
बड़ा द्वार सब आस लगाई। अब सुधि लेत शीतला माई।।
यह चालीसा शीतला पाठ करे जो कोय। सपनें दुख व्यापे नही नित सब मंगल होय।।
बुझे सहस्र विक्रमी शुक्ल भाल भल किंतू। जग जननी का ये चरित रचित भक्ति रस बिंतू।।
॥ इतिश्री शीतला माता चालीसा समाप्त॥
दुर्गा माता जी की आरती
जय अम्बे गौरी मैया जय मंगल मूर्ति । तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव री ॥टेक॥
मांग सिंदूर बिराजत टीको मृगमद को । उज्ज्वल से दोउ नैना चंद्रबदन नीको ॥जय॥
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै। रक्तपुष्प गल माला कंठन पर साजै ॥जय॥
केहरि वाहन राजत खड्ग खप्परधारी । सुर-नर मुनिजन सेवत तिनके दुःखहारी ॥जय॥
कानन कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती । कोटिक चंद्र दिवाकर राजत समज्योति ॥जय॥
शुम्भ निशुम्भ बिडारे महिषासुर घाती । धूम्र विलोचन नैना निशिदिन मदमाती ॥जय॥
चौंसठ योगिनि मंगल गावैं नृत्य करत भैरू। बाजत ताल मृदंगा अरू बाजत डमरू ॥जय॥
भुजा चार अति शोभित खड्ग खप्परधारी। मनवांछित फल पावत सेवत नर नारी ॥जय॥
कंचन थाल विराजत अगर कपूर बाती । श्री मालकेतु में राजत कोटि रतन ज्योति ॥जय॥
श्री अम्बेजी की आरती जो कोई नर गावै । कहत शिवानंद स्वामी सुख-सम्पत्ति पावै ॥जय॥
|| मंगल की सेवा सुन मेरी देवा आरती ||
मंगल की सेवा सुन मेरी देवा, हाथ जोड तेरे द्वार खडे। पान सुपारी ध्वजा नारियल ले ज्वाला तेरी भेट धरे
सुन जगदम्बे न कर विलम्बे, संतन के भडांर भरे। सन्तन प्रतिपाली सदा खुशहाली, मैया जै काली कल्याण करे ।।
बुद्धि विधाता तू जग माता,मेरा कारज सिद्व करे। चरण कमल का लिया आसरा शरण तुम्हारी आन पडे
जब जब भीड पडी भक्तन पर, तब तब आय सहाय करे ।। गुरु के वार सकल जग मोहयो, तरूणी रूप अनूप धरे
माता होकर पुत्र खिलावे, कही भार्या भोग करे, संतन सुखदाई सदा सहाई संत खडे जयकार करे ।।
ब्रह्मा विष्णु महेश फल लिए लिये भेट तेरे द्वार खडे, अटल सिहांसन बैठी मेरी माता,सिर सोने का छत्र फिरे ।।
वार शनिचर कुकम बरणो, जब लकड पर हुकुम करे, खड्ग खप्पर त्रिशुल हाथ लिये, रक्त बीज को भस्म करे
शुम्भ निशुम्भ को क्षण मे मारे, महिषासुर को पकड दले ।। आदित वारी आदि भवानी, जन अपने को कष्ट हरे
कुपित होकर दानव मारे, चण्डमुण्ड सब चूर करे, जब तुम देखी दया रूप हो, पल मे सकंट दूर करे
सौम्य स्वभाव धरयो मेरी माता, जन की अर्ज कबूल करे ।।
सात बार की महिमा बरनी, सब गुण कौन बखान करे, सिंह पीठ पर चढी भवानी, अटल भवन मे राज्य करे ।।
दर्शन पावे मंगल गावे,सिद्ध साधक तेरी भेट धरे। ब्रह्मा वेद पढे तेरे द्वारे, शिव शंकर ध्यान धरे ।।
इन्द्र कृष्ण तेरी करे आरती, चंवर कुबेर डुलाय रहे, जय जननी जय मात भवानी , अटल भवन मे राज्य करे।।
काली माँ की आरती
अम्बे तू है जगदम्बे काली, जय दुर्गे खप्पर वाली, तेरे ही गुण गावें भारती, ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती।
तेरे भक्त जनो पर माता भीर पड़ी है भारी। दानव दल पर टूट पडो माँ करके सिंह सवारी॥
सौ-सौ सिहों से बलशाली, है अष्ट भुजाओं वाली, दुष्टों को तू ही ललकारती। ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती॥
माँ-बेटे का है इस जग मे बडा ही निर्मल नाता। पूत-कपूत सुने है पर ना माता सुनी कुमाता॥
सब पे करूणा दर्शाने वाली, अमृत बरसाने वाली, दुखियों के दुखडे निवारती। ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती॥
नहीं मांगते धन और दौलत, न चांदी न सोना। हम तो मांगें तेरे चरणों में छोटा सा कोना॥
सबकी बिगड़ी बनाने वाली, लाज बचाने वाली, सतियों के सत को सवांरती। ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती॥
चरण शरण में खड़े तुम्हारी, ले पूजा की थाली। वरद हस्त सर पर रख दो माँ संकट हरने वाली॥
माँ भर दो भक्ति रस प्याली, अष्ट भुजाओं वाली, भक्तों के कारज तू ही सारती।। ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती
आरती: माँ महाकाली
जय काली माता, माँ जय महा काली माँ। रतबीजा वध कारिणी माता। सुरनर मुनि ध्याता, माँ जय महा काली माँ॥ दक्ष यज्ञ विदवंस करनी माँ शुभ निशूंभ हरलि। मधु और कैितभा नासिनी माता।
महेशासुर मरदिनी, ओ माता जय महा काली माँ॥
हे हीमा गिरिकी नंदिनी प्रकृति रचा इत्ठि। काल विनासिनी काली माता। सुरंजना सूख दात्री हे माता॥
अननधम वस्तराँ दायनी माता आदि शक्ति अंबे। कनकाना कना निवासिनी माता। भगवती जगदंबे, ओ माता
जय महा काली माँ॥
दक्षिणा काली आध्या काली, काली नामा रूपा। तीनो लोक विचारिती माता धर्मा मोक्ष रूपा॥ जय महा काली माँ
शीतला माता की आरती
जय शीतला माता, मैया जय शीतला माता, आदि ज्योति महारानी सब फल की दाता। जय शीतला माता…
रतन सिंहासन शोभित, श्वेत छत्र भ्राता, ऋद्धि-सिद्धि चंवर ढुलावें, जगमग छवि छाता। जय शीतला माता…
विष्णु सेवत ठाढ़े, सेवें शिव धाता वेद पुराण बरणत पार नहीं पाता । जय शीतला माता…
इन्द्र मृदंग बजावत चन्द्र वीणा हाथा, सूरज ताल बजाते नारद मुनि गाता। जय शीतला माता.
घंटा शंख शहनाई बाजै मन भाता, करै भक्त जन आरति लखि लखि हरहाता। जय शीतला माता…
ब्रह्म रूप वरदानी तुही तीन काल ज्ञाता, भक्तन को सुख देनौ मातु पिता भ्राता। जय शीतला माता…
जो भी ध्यान लगावें प्रेम भक्ति लाता, सकल मनोरथ पावे भवनिधि तर जाता। जय शीतला माता…
रोगन से जो पीड़ित कोई शरण तेरी आता, कोढ़ी पावे निर्मल काया अन्ध नेत्र पाता। जय शीतला माता…
बांझ पुत्र को पावे दारिद कट जाता, ताको भजै जो नाहीं सिर धुनि पछिताता। जय शीतला माता…
शीतल करती जननी तू ही है जग त्राता, उत्पत्ति व्याधि विनाशत तू सब की घाता। जय शीतला माता…
दास विचित्र कर जोड़े सुन मेरी माता, भक्ति आपनी दीजे और न कुछ भाता। जय शीतला माता…।
नवदुर्गा आरती
शैलपुत्री माता की आरती
शैलपुत्री मां बैल असवार। करें देवता जय जयकार।। शिव शंकर की प्रिय भवानी। तेरी महिमा किसी ने ना जानी।।
पार्वती तू उमा कहलावे। जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।। ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू। दया करे धनवान करे तू।।
सोमवार को शिव संग प्यारी। आरती तेरी जिसने उतारी।। उसकी सगरी आस पुजा दो। सगरे दुख तकलीफ मिला दो।
घी का सुंदर दीप जला के। गोला गरी का भोग लगा के।। श्रद्धा भाव से मंत्र गाएं। प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।।
जय गिरिराज किशोरी अंबे। शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे।। मनोकामना पूर्ण कर दो। भक्त सदा सुख संपत्ति भ
ब्रह्मचारिणी माता की आरती
जय अंबे ब्रह्मचारिणी माता। जय चतुरानन प्रिय सुख दाता॥ ब्रह्मा जी के मन भाती हो। ज्ञान सभी को सिखलाती हो॥
ब्रह्म मंत्र है जाप तुम्हारा। जिसको जपे सरल संसारा॥ जय गायत्री वेद की माता। जो जन जिस दिन तुम्हें ध्याता॥
कमी कोई रहने ना पाए। उसकी विरति रहे ठिकाने॥ जो तेरी महिमा को जाने। रुद्राक्ष की माला ले कर॥
जपे जो मंत्र श्रद्धा दे कर। आलस छोड़ करे गुणगाना॥ माँ तुम उसको सुख पहुचाना। ब्रह्मचारिणी तेरो नाम॥
पूर्ण करो सब मेरे काम। भक्त तेरे चरणों का पुजारी॥ रखना लाज मेरी महतारी।
चंद्रघंटा माता की आरती
जय माँ चन्द्रघंटा सुख धाम। पूर्ण कीजो मेरे काम॥ चन्द्र समाज तू शीतल दाती। चन्द्र तेज किरणों में समाती॥
क्रोध को शांत बनाने वाली। मीठे बोल सिखाने वाली॥ मन की मालक मन भाती हो। चंद्रघंटा तुम वर दाती हो॥
सुन्दर भाव को लाने वाली। हर संकट में बचाने वाली॥ हर बुधवार को तुझे ध्याये। श्रद्दा सहित तो विनय सुनाए॥
मूर्ति चन्द्र आकार बनाए। शीश झुका कहे मन की बाता॥ पूर्ण आस करो जगत दाता। कांचीपुर स्थान तुम्हारा॥
कर्नाटिका में मान तुम्हारा। नाम तेरा रटू महारानी॥ भक्त की रक्षा करो भवानी।
कूष्मांडा माता की आरती
कूष्मांडा जय जग सुखदानी। मुझ पर दया करो महारानी॥ पिगंला ज्वालामुखी निराली। शाकंबरी माँ भोली भाली॥
लाखों नाम निराले तेरे । भक्त कई मतवाले तेरे॥ भीमा पर्वत पर है डेरा। स्वीकारो प्रणाम ये मेरा॥
सबकी सुनती हो जगदंबे। सुख पहुँचती हो माँ अंबे॥ तेरे दर्शन का मैं प्यासा। पूर्ण कर दो मेरी आशा॥
माँ के मन में ममता भारी। क्यों ना सुनेगी अरज हमारी॥ तेरे दर पर किया है डेरा। दूर करो माँ संकट मेरा॥
मेरे कारज पूरे कर दो। मेरे तुम भंडारे भर दो॥ तेरा दास तुझे ही ध्याए। भक्त तेरे दर शीश झुकाए॥
स्कंदमाता माता की आरती
जय तेरी हो स्कंदमाता। पांचवां नाम तुम्हारा आता॥ सबके मन की जानन हारी। जननी सबकी महतारी॥
तेरी जोत जलाता रहू मैं। हरदम तुझे ध्याता रहू मै॥ कई नामों से तुझे पुकारा। मुझे एक है तेरा सहारा॥
कही पहाडो पर है डेरा। कई शहरों में तेरा बसेरा॥ हर मंदिर में तेरे नजारे। गुण गाए तेरे भक्त प्यारे॥
भक्ति अपनी मुझे दिला दो। शक्ति मेरी बिगड़ी बना दो॥ इंद्र आदि देवता मिल सारे। करे पुकार तुम्हारे द्वारे॥
दुष्ट दैत्य जब चढ़ कर आए। तू ही खंडा हाथ उठाए॥ दासों को सदा बचाने आयी। भक्त की आस पुजाने आयी॥
कात्यायनी माता की आरती
जय जय अंबे जय कात्यायनी। जय जगमाता जग की महारानी॥ बैजनाथ स्थान तुम्हारी। वहां वरदानी नाम पुकारा॥
कई नाम है कई धाम हैं। यह स्थान भी तो सुखधाम है॥ हर मंदिर में जोत तुम्हारी। कही योगेश्वरी महिमा न्यारी॥
हर जगह उत्सव होते रहते। हर मंदिर में भक्त हैं कहते॥ कात्यायनी रक्षक काया की। ग्रंथि काटे मोह माया की॥
झूठे मोह से छुड़ानेवाली। अपना नाम जपनेवाली॥ बृहस्पतिवार को पूजा करियो। ध्यान कात्यायनी का धरियो॥
हर संकट को दूर करेगी। भंडारे भरपूर करेगी॥ जो भी माँ को भक्त पुकारे। कात्यायनी सब कष्ट निवारे॥
कालरात्रि माता की आरती
कालरात्रि जय-जय-महाकाली। काल के मुह से बचाने वाली॥ दुष्ट संघारक नाम तुम्हारा। महाचंडी तेरा अवतार॥
पृथ्वी और आकाश पे सारा। महाकाली है तेरा पसारा॥ खडग खप्पर रखने वाली। दुष्टों का लहू चखने वाली॥
कलकत्ता स्थान तुम्हारा। सब जगह देखूं तेरा नजारा॥ सभी देवता सब नर-नारी। गावें स्तुति सभी तुम्हारी॥
रक्तदंता और अन्नपूर्णा। कृपा करे तो कोई भी दुःख ना॥ ना कोई चिंता रहे बीमारी। ना कोई गम ना संकट भारी॥
उस पर कभी कष्ट ना आवें। महाकाली माँ जिसे बचाबे॥ तू भी भक्त प्रेम से कह। कालरात्रि माँ तेरी जय॥
महागौरी माता की आरती
जय महागौरी जगत की माया। जया उमा भवानी जय महामाया॥
हरिद्वार कनखल के पासा। महागौरी तेरी वहां निवासा॥
चंद्रकली ओर ममता अंबे। जय शक्ति जय जय माँ जगंदबे॥
भीमा देवी विमला माता। कौशिकी देवी जग विख्यता॥
हिमाचल के घर गौरी रूप तेरा। महाकाली दुर्गा है स्वरूप तेरा॥
सती {सत} हवन कुंड में था जलाया। उसी धुएं ने रूप काली बनाया॥
बना धर्म सिंह जो सवारी में आया। तो शंकर ने त्रिशूल अपना दिखाया॥
तभी माँ ने महागौरी नाम पाया। शरण आनेवाले का संकट मिटाया॥
शनिवार को तेरी पूजा जो करता। माँ बिगड़ा हुआ काम उसका सुधरता॥
भक्त बोलो तो सोच तुम क्या रहे हो। महागौरी माँ तेरी हरदम ही जय हो॥
सिद्धिदात्री माता की आरती
जय सिद्धिदात्री माँ तू सिद्धि की दाता। तु भक्तों की रक्षक तू दासों की माता॥
तेरा नाम लेते ही मिलती है सिद्धि। तेरे नाम से मन की होती है शुद्धि॥
कठिन काम सिद्ध करती हो तुम। जभी हाथ सेवक के सिर धरती हो तुम॥
तेरी पूजा में तो ना कोई विधि है। तू जगदंबे दाती तू सर्व सिद्धि है॥
रविवार को तेरा सुमिरन करे जो। तेरी मूर्ति को ही मन में धरे जो॥
तू सब काज उसके करती है पूरे। कभी काम उसके रहे ना अधूरे॥
तुम्हारी दया और तुम्हारी यह माया। रखे जिसके सिर पर मैया अपनी छाया॥
सर्व सिद्धि दाती वह है भाग्यशाली। जो है तेरे दर का ही अंबे सवाली॥
हिमाचल है पर्वत जहां वास तेरा। महा नंदा मंदिर में है वास तेरा॥
मुझे आसरा है तुम्हारा ही माता। भक्ति है सवाली तू जिसकी दाता॥
☀☀☀☀नवदुर्गा रक्षामंत्र ☀☀☀☀
ॐ शैलपुत्री मैया रक्षा करो, ॐ जगजननि देवी रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
ॐ ब्रह्मचारिणी मैया रक्षा करो, ॐ भवतारिणी देवी रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
ॐ चंद्रघणटा चंडी रक्षा करो, ॐ भयहारिणी मैया रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
ॐ कुषमाणडा तुम ही रक्षा करो, ॐ शक्तिरूपा मैया रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
ॐ स्कन्दमाता माता मैया रक्षा करो, ॐ जगदम्बा जननि रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
ॐ कात्यायिनी मैया रक्षा करो, ॐ पापनाशिनी अंबे रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
ॐ कालरात्रि काली रक्षा करो, ॐ सुखदाती मैया रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
ॐ महागौरी मैया रक्षा करो, ॐ भक्तिदाती रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
ॐ सिद्धिरात्रि मैया रक्षा करो, ॐ नव दुर्गा देवी रक्षा करो ॐ नव दुर्गा नमः, ॐ जगजननी नमः
॥ दुर्गा आपदुद्धाराष्टकम् ॥
नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकम्पे नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे ।
नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्दे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ १॥
नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपे नमस्ते महायोगिविज्ञानरूपे ।
नमस्ते नमस्ते सदानन्द रूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ २॥
अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्य भयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ३॥
अरण्ये रणे दारुणे शुत्रुमध्ये जले सङ्कटे राजग्रेहे प्रवाते ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तार हेतुर्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ४॥
अपारे महदुस्तरेऽत्यन्तघोरे विपत् सागरे मज्जतां देहभाजाम् ।
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौका नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ५॥
नमश्चण्डिके चण्डोर्दण्डलीलासमुत्खण्डिता खण्डलाशेषशत्रोः ।
त्वमेका गतिर्विघ्नसन्दोहहर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ६॥
त्वमेका सदाराधिता सत्यवादिन्यनेकाखिला क्रोधना क्रोधनिष्ठा ।
इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्ना च नाडी नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ७॥
नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादे सदासर्वसिद्धिप्रदातृस्वरूपे ।
विभूतिः सतां कालरात्रिस्वरूपे नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥ ८॥
शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणां मुनिदनुजवराणां व्याधिभिः पीडितानाम् ।
नृपतिगृहगतानां दस्युभिस्त्रासितानां त्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद ॥ ९॥
॥ इति सिद्धेश्वरतन्त्रे हरगौरीसंवादे आपदुद्धाराष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
श्री विंध्यवासिनी माता स्तोत्रम
ध्यानः नंद गोप गृहे जाता यशोदा गर्भसम्भवा| ततस्तो नाश यष्यामि विंध्याचल निवासिनी ||
||श्री विंध्यवासिनी माता स्तोत्रम||
निशुम्भशुम्भमर्दिनी, प्रचंडमुंडखंडनीम | वने रणे प्रकाशिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||१||
त्रिशुलमुंडधारिणीं, धराविघातहारणीम | गृहे गृहे निवासिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||२||
दरिद्रदु:खहारिणीं, संता विभूतिकारिणीम | वियोगशोकहारणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||३||
लसत्सुलोललोचनां, लता सदे वरप्रदाम | कपालशूलधारिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||४||
करे मुदागदाधरीं, शिवा शिवप्रदायिनीम | वरां वराननां शुभां, भजामि विंध्यवासिनीम ||५||
ऋषीन्द्रजामिनींप्रदा,त्रिधास्वरुपधारिणींम | जले थले निवासिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||६||
विशिष्टसृष्टिकारिणीं, विशालरुपधारिणीम | महोदरे विलासिनीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||७||
पुरंदरादिसेवितां, मुरादिवंशखण्डनीम |विशुद्ध बुद्धिकारिणीं, भजामि विंध्यवासिनीम ||८|
भवान्यष्टकम्
न तातो न माता न बन्धुर्न दाता न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ १ ॥
हे भवानी! पिता, माता, भाई, दाता, पुत्र, पुत्री, सेवक, स्वामी, पत्नी, विद्या, और मन – इनमें से कोई भी मेरा नहीं है, हे देवी! अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो ।
भवाब्धावपारे महादुःखभीरु पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ २ ॥
मैं अपार भवसागर में पड़ा हुआ हूँ, महान् दु:खोंसे भयभीत हूँ, कामी, लोभी मतवाला तथा संसार के घृणित बन्धनों में बँधा हुआ हूँ, हे भवानी ! अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो ।
न जानामि दानं न च ध्यानयोगं न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम्
न जानामि पूजां न च न्यासयोगं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ३ ॥
हे भवानी! मैं न दान देना जानता हूँ और न ध्यानमार्ग का ही मुझे पता है, तन्त्र और स्तोत्र-मन्त्रों का भी मुझे ज्ञान नहीं है, पूजा तथा न्यास आदि की क्रियाओं से तो मैं एकदम कोरा हूँ, अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो ।
न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित्
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्- गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ४ ॥
न मैं पुण्य जानता हूँ न तीर्थ, न मुक्ति का पता है न लयका । हे मातः ! भक्ति और व्रत भी मुझे ज्ञात नहीं है , हे भवानी ! अब केवल तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो ।
कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धिः कुदासः कुलाचारहीनः कदाचारलीनः
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहं गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ५ ॥
मैं कुकर्मी, बुरी संगति में रहनेवाला, दुर्बुद्धि, दुष्टदास, कुलोचित सदाचार से हीन, दुराचारपरायण, कुत्सित दृष्टि रखनेवाले और सदा दुर्वचन बोलनेवाले हूँ, हे भवानी ! मुझ अधमकी अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित् न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ६ ॥
मैं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्रा सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य किसी भी देवता को नहीं जानता, हे शरण देनेवाली भवानी! अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो ।
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ७ ॥
हे शरण्ये! तुम विवाद, विषाद, प्रमाद, परदेश, जल, अनल, पर्वत, वन तथा शत्रुओं के माध्य में सदा ही मेरी रक्षा करो, हे भवानी! अब केवल तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो ।
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः
विपत्तौ प्रविष्टः प्रनष्टः सदाहं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥ ८ ॥
हे भवानी ! मैं सदा से ही अनाथ, दरिद्र, जरा-जीर्ण, रोगी, अत्यन्त दुर्बल, दीन, गूँगा, विपद्ग्रस्त और नष्टप्राय हूँ अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्हीं मेरी गति हो ।
सङ्कटनामाष्टकम्
नारद उवाच –
जैगीषव्य मुनिश्रेष्ठ सर्वज्ञ सुखदायक । आख्यातानि सुपुण्यानि श्रुतानि त्वत्प्रसादतः ॥ १ ॥
न तृप्तिमधिगच्छामि तव वागमृतेन च । वदस्वैकं महाभाग सङ्कटाख्यानमुत्तमम् ॥ २ ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा जैगीषव्योऽब्रवीत्ततः । सङ्कष्टनाशनं स्तोत्रं शृणु देवर्षिसत्तम ॥ ३ ॥
द्वापरे तु पुरा वृत्ते भ्रष्टराज्यो युधिष्ठिरः । भ्रातृभिस्सहितो राज्यनिर्वेदं परमं गतः ॥ ४ ॥
तदानीं तु ततः काशीं पुरीं यातो महामुनिः । मार्कण्डेय इति ख्यातः सह शिष्यैर्महायशाः ॥ ५ ॥
तं दृष्ट्वा स समुत्थाय प्रणिपत्य सुपूजितः । किमर्थं म्लानवदन एतत्त्वं मां निवेदय ॥ ६ ॥
युधिष्ठिर उवाच –
सङ्कष्टं मे महत्प्राप्तमेतादृग्वदनं ततः । एतन्निवारणोपायं किञ्चिद्ब्रूहि मुने मम ॥ ७ ॥
मार्कण्डेय उवाच –
आनन्दकानने देवी सङ्कटा नाम विश्रुता । वीरेश्वरोत्तरे भागे पूर्वं चन्द्रेश्वरस्य च ॥ ८ ॥
शृणु नामाष्टकं तस्याः सर्वसिद्धिकरं नृणाम् । सङ्कटा प्रथमं नाम द्वितीयं विजया तथा ॥ ९ ॥
तृतीयं कामदा प्रोक्तं चतुर्थं दुःखहारिणी । शर्वाणी पञ्चमं नाम षष्ठं कात्यायनी तथा ॥ १० ॥
सप्तमं भीमनयना सर्वरोगहराऽष्टमम् । नामाष्टकमिदं पुण्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ॥ ११ ॥
यः पठेत्पाठयेद्वापि नरो मुच्येत सङ्कटात् । इत्युक्त्वा तु द्विजश्रेष्ठमृषिर्वाराणसीं ययौ ॥ १२ ॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा नारदो हर्षनिर्भरः । ततः सम्पूजितां देवीं वीरेश्वरसमन्विताम् ॥ १३ ॥
भुजैस्तु दशभिर्युक्तां लोचनत्रयभूषिताम् । मालाकमण्डलुयुतां पद्मशङ्खगदायुताम् ॥ १४ ॥
त्रिशूलडमरुधरां खड्गचर्मविभूषिताम् । वरदाभयहस्तां तां प्रणम्य विधिनन्दनः ॥ १५ ॥
वारत्रयं गृहीत्वा तु ततो विष्णुपुरं ययौ । एतत् स्तोत्रस्य पठनं पुत्रपौत्रविवर्धनम् ॥ १६ ॥
सङ्कष्टनाशनं चैव त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् । गोपनीयं प्रयत्नेन महावन्ध्याप्रसूतिकृत् ॥ १७ ॥
इति श्रीपद्मपुराणे सङ्कटनामाष्टकम् ।
श्री शीतलाष्टकं
।।श्री शीतलायै नमः।।
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीशीतलास्तोत्रस्य महादेव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीशीतला देवता, लक्ष्मी (श्री) बीजम्, भवानी शक्तिः, सर्व-विस्फोटक-निवृत्यर्थे जपे विनियोगः ।।
ऋष्यादि-न्यासः-
श्रीमहादेव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीशीतला देवतायै नमः हृदि, लक्ष्मी (श्री) बीजाय नमः गुह्ये, भवानी शक्तये नमः पादयो, सर्व-विस्फोटक-निवृत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।।
ध्यानः-
ध्यायामि शीतलां देवीं, रासभस्थां दिगम्बराम्। मार्जनी-कलशोपेतां शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम्।।
मानस-पूजनः-
ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः। ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्री शीतला-देवी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
मन्त्रः- “ॐ ह्रीं श्रीं शीतलायै नमः।।” (११ बार)
।।मूल-स्तोत्र।।
।।ईश्वर उवाच।।
वन्देऽहं शीतलां-देवीं, रासभस्थां दिगम्बराम् । मार्जनी-कलशोपेतां, शूर्पालङ्कृत-मस्तकाम् ।।१
वन्देऽहं शीतलां-देवीं, सर्व-रोग-भयापहाम् । यामासाद्य निवर्तन्ते, विस्फोटक-भयं महत् ।।२
शीतले शीतले चेति, यो ब्रूयाद् दाह-पीडितः । विस्फोटक-भयं घोरं, क्षिप्रं तस्य प्रणश्यति ।।३
यस्त्वामुदक-मध्ये तु, ध्यात्वा पूजयते नरः । विस्फोटक-भयं घोरं, गृहे तस्य न जायते ।।४
शीतले ! ज्वर-दग्धस्य पूति-गन्ध-युतस्य च । प्रणष्ट-चक्षुषां पुंसां , त्वामाहुः जीवनौषधम् ।।५
शीतले ! तनुजान् रोगान्, नृणां हरसि दुस्त्यजान् । विस्फोटक-विदीर्णानां, त्वमेकाऽमृत-वर्षिणी ।।६
गल-गण्ड-ग्रहा-रोगा, ये चान्ये दारुणा नृणाम् । त्वदनुध्यान-मात्रेण, शीतले! यान्ति सङ्क्षयम् ।।
७ न मन्त्रो नौषधं तस्य, पाप-रोगस्य विद्यते । त्वामेकां शीतले! धात्री, नान्यां पश्यामि देवताम् ।।८
।।फल-श्रुति।।
मृणाल-तन्तु-सदृशीं, नाभि-हृन्मध्य-संस्थिताम् । यस्त्वां चिन्तयते देवि ! तस्य मृत्युर्न जायते ।।९
अष्टकं शीतलादेव्या यो नरः प्रपठेत्सदा । विस्फोटकभयं घोरं गृहे तस्य न जायते ।।१०
श्रोतव्यं पठितव्यं च श्रद्धाभाक्तिसमन्वितैः । उपसर्गविनाशाय परं स्वस्त्ययनं महत् ।।११
शीतले त्वं जगन्माता शीतले त्वं जगत्पिता । शीतले त्वं जगद्धात्री शीतलायै नमो नमः ।।१२
रासभो गर्दभश्चैव खरो वैशाखनन्दनः । शीतलावाहनश्चैव दूर्वाकन्दनिकृन्तनः ।।१३
एतानि खरनामानि शीतलाग्रे तु यः पठेत् । तस्य गेहे शिशूनां च शीतलारुङ् न जायते ।।१४
शीतलाष्टकमेवेदं न देयं यस्यकस्यचित् । दातव्यं च सदा तस्मै श्रद्धाभक्तियुताय वै ।।१५
।।इति श्रीस्कन्दपुराणे शीतलाष्टकं सम्पूर्णम् ।।
महिषासुरमर्दिनि स्तोत्रम्
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते, गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते, जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१॥
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥
अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥
अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥
अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥
अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥
अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥
धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥
सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥
जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥
अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥
सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते । शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१२॥
अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥
कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१४
करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥
कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥
विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते । जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥
दकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥
कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम् भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम् जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥
तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥
अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते ।
यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २१ ॥
☀☀☀श्रीचण्डिका-हृदय-स्तोत्र☀☀☀
प्रस्तुत मन्त्रात्मक-श्रीचण्डिका-हृदय-स्तोत्र का सविधि तीनों सन्ध्याओं में पाठ करने से पाठ करने वाले व्यक्ति की सभी कामनाएँ पूर्ण होती है । प्रति सन्ध्या-काल में इस स्तोत्र का पाठ २१-२१ बार करना चाहिए । केवल पहले पाठ में विनियोग से ध्यान तक की प्रारम्भिक क्रिया और अन्तिम पाठ में फल-श्रुति का पाठ करना चाहिए । शेष २० पाठों में मात्र स्तोत्र का पाठ करना चाहिए अर्थात् ऐं ह्रीं क्लीं से साधय स्वाहा तक ।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीचण्डिका-हृदय-स्तोत्र-मन्त्रस्य श्रीमार्कण्डेय ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । श्री चण्डिका देवता । ह्रां बीजं । ह्रीं शक्ति । ह्रूं कीलकं । श्रीचण्डिका प्रीतये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः- श्रीमार्कण्डेय ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । श्री चण्डिका देवतायै नमः हृदि । ह्रां बीजाय नमः लिंगे । ह्रीं शक्तये नमः नाभौ । ह्रूं कीलकाय नमः पादयो । श्रीचण्डिका प्रीतये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास कर-न्यास अंग-न्यास ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा शिरसे स्वाहा ह्रूं मध्यमाभ्यां वषट् शिखायै वषट्
ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं कवचाय हुं ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् नेत्र-त्रयाय वौषट्
ह्रः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट् अस्त्राय फट्
ध्यानः- सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके, शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।
।। मूल-पाठ ।।
ऐं ह्रीं क्लीं ह्रां ह्रीं ह्रूं जय चामुण्डे, चण्डिके, त्रिदश-मणि-मुकुट-कोटीर-संघट्टित-चरणारविन्दे, गायत्री, सावित्री, सरस्वति, महाऽहि-कृताभरणे, भैरव-रुप-धारिणि, प्रगटित-दंष्ट्रीग्र-वदने, घोरे, घोरानने, ज्वल ज्वल ज्वाला-सहस्र-परिवृते, महाऽट्टहास-वधिरी-कृत-दिगन्तरे, सर्वायुध-परिपूर्णे, कपाल-हस्ते, जगाजिनोत्तरीये, भूत-वेताल-वृन्द-परिवृते, प्रकम्पित-चराचरे, मधु-कैटभ-महिषासुर-धूम्रलोचन-चण्ड-मुण्ड-रक्तवीज-शुम्भ-निशुम्भादि-दैत्य-निष्कण्टके, काल-रात्रि, महा-माये, शिवे, नित्ये, इन्द्राग्नि-यम-निर्ऋति-वरुण-वायु-सोमेशान-प्रधान-शक्ति-भूते, ब्रह्म-विष्णु-शिव-स्तुते, त्रिभुवन-धराधारे, वामे, ज्येष्ठे, वरदे, रौद्रि, अम्बिके, ब्राह्मि, माहेश्वरि, कौमारि, वैष्णवि, शंखिनि, वाराहीन्द्राणि, चामुण्डे, शिव-दूति, महा-काली-महा-लक्ष्मी-महा-सरस्वति-स्वरुपे, नाद-मध्य-स्थिते, महोग्र-विषोरग-फणाफणि-घटित-मुकुट-कटकादि-रत्न-महा-ज्वाला-मय-पाद-बाहु-कण्ठोत्तमांगे, मालाऽकुले, महा-महिषोपरि-गन्धर्व-विद्याधराराधिते, नव-रत्न-निधि-कोशे, तत्त्व-स्वरुपे, वाक्-पाणि-पाद-पायूपस्थात्मिके, शब्द-स्पर्श-रुप-रस-गन्धादि-स्वरुपे, त्वक्-चक्षु-श्रोतृ-जिह्वा-घ्राण-महा-बुद्धि-स्थिते, ॐ-कार-ऐं-कार-ह्रीं-कार-क्लीं-कार-हस्ते ! आं क्रों आग्नेय-नयन-पात्रे प्रवेशय प्रवेशय, द्रां शोषय शोषय, द्रीं सुकुमारय सुकुमारय, श्रीसर्वं प्रवेशय प्रवेशय । त्रैलोक्य-वर-वर्णिनि ! समस्त-चित्तं वशी कुरु कुरु, मम शत्रून् शीघ्रं मारय मारय, हाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्त्यवस्थास्वस्मान् राज-चौराग्नि-जल-वात-विष-भूत-शत्रु-मृत्यु-ज्वरादि-स्फोटकादि-नाना-रोगेभ्यो नानापवादेभ्यः पर-कर्म-मन्त्र-तन्त्र-यन्त्रोषध-शल्य-शून्य-क्षुद्रेभ्यः सम्यङ् मां रक्ष रक्ष । ओं ऐं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः, स्फ्रां स्फ्रीं स्फ्रूं स्फ्रैं स्फ्रौं, मम सर्व-कार्य-कर्माणि साधय साधय हुं फट् स्वाहा । राज-द्वारे श्मशाने वा विवादे शत्रु-संकटे । भूतानि-चोर-मध्यस्थे मम कार्याणि साधय स्वाहा ।
।। फल-श्रुति ।।
चण्डिका-हृदयं गुह्यं, त्रि-सन्ध्यं यः पठेन्नरः । सर्व-काम-प्रदं पुंसां, भुक्तिं मुक्तिं प्रयच्छति ।।..
संपूर्ण विश्व को चलाने वाली कण-कण में व्याप्त महामाया की शक्ति अनादि व अनंत है। माँ जगदम्बा स्वयं ही संपूर्ण चराचर की अधिष्ठात्री भी हैं। माँ देवी के समस्त अवतारों की पूजा, अर्चना व उपासना करने से उपासना का तेज बढ़ता है एवं दुष्टों को दंड मिलता है। नवदुर्गाओं का आवाहन अर्थात् नवरात्रि में माँ भगवती श्री जगदम्बा की आराधना अत्यधिक फलप्रदायिनी होती है। हठयोगानुसार मानव शरीर के नौ छिद्रों को महामाया की नौ शक्तियाँ माना जाता है।
महादेवी की अष्टभुजाएं क्रमश: पंचमहाभूत व तीन महागुण है। महादेवी की महाशक्ति का प्रत्येक अवतार तन्त्रशास्त्र से संबंधित है, यह भी अपने आप में देवी की एक अद्भुत महिमा है।
शिवपुराणानुसार महादेव के दशम अवतारों में महाशक्ति माँ जगदम्बा प्रत्येक अवतार में उनके साथ अवतरित थीं। उन समस्त अवतारों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-
(1) महादेव के महाकाल अवतार में देवी महाकाली के रूप में उनके साथ थीं।
(2) महादेव के तारकेश्वर अवतार में भगवती तारा के रूप में उनके साथ थीं।
(3) महादेव के भुवनेश अवतार में माँ भगवती भुवनेश्वरी के रूप में उनके साथ थीं।
(4) महादेव के षोडश अवतार में देवी षोडशी के रूप में साथ थीं।
(5) महादेव के भैरव अवतार में देवी जगदम्बा भैरवी के रूप में साथ थीं।
(6) महादेव के छिन्नमस्तक अवतार के समय माँ भगवती छिन्नमस्ता रूप में उनके साथ थीं।
(7) महादेव के ध्रूमवान अवतार के समय धूमावती के रूप में देवी उनके साथ थीं।
(8) महादेव के बगलामुखी अवतार के समय देवी जगदम्बा बगलामुखी रूप में उनके साथ थीं।
(9) महादेव के मातंग अवतार के समय देवी मातंगी के रूप में उनके साथ थीं।
(10) महादेव के कमल अवतार के समय कमला के रूप में देवी उनके साथ थीं।
दस महाविद्या के नाम से प्रचलित महामाया माँ जगत् जननी जगदम्बा के ये दस रूप तांत्रिकों आदि उपासकों की आराधना का अभिन्न अंग हैं, इन महाविद्याओं द्वारा उपासक कई प्रकार की सिद्धियां व मनोवांछित फल की प्राप्ति करता है।
मंगला गौरी स्तोत्रं
ॐ रक्ष-रक्ष जगन्माते देवि मङ्गल चण्डिके। हारिके विपदार्राशे हर्षमंगल कारिके।।
हर्षमंगल दक्षे च हर्षमंगल दायिके। शुभेमंगल दक्षे च शुभेमंगल चंडिके।।
मंगले मंगलार्हे च सर्वमंगल मंगले। सता मंगल दे देवि सर्वेषां मंगलालये।।
पूज्ये मंगलवारे च मंगलाभिष्ट देवते। पूज्ये मंगल भूपस्य मनुवंशस्य संततम्।।
मंगला धिस्ठात देवि मंगलाञ्च मंगले। संसार मंगलाधारे पारे च सर्वकर्मणाम्।।
देव्याश्च मंगलंस्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः। प्रति मंगलवारे च पूज्ये मंगल सुख-प्रदे।।
तन्मंगलं भवेतस्य न भवेन्तद्-मंगलम्। वर्धते पुत्र-पौत्रश्च मंगलञ्च दिने-दिने।।
मामरक्ष रक्ष-रक्ष ॐ मंगल मंगले।
।।इति मंगलागौरी स्तोत्रं सम्पूर्णं।।
योनि–स्तोत्र
ॐभग-रूपा जगन्माता सृष्टि-स्थिति-लयान्विता । दशविद्या – स्वरूपात्मा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।१।।
कोण-त्रय-युता देवि स्तुति-निन्दा-विवर्जिता । जगदानन्द-सम्भूता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।२।।
कात्र्रिकी – कुन्तलं रूपं योन्युपरि सुशोभितम् । भुक्ति-मुक्ति-प्रदा योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा ।।३।।
वीर्यरूपा शैलपुत्री मध्यस्थाने विराजिता । ब्रह्म-विष्णु-शिव श्रेष्ठा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।४।।
योनिमध्ये महाकाली छिद्ररूपा सुशोभना । सुखदा मदनागारा योनिर्मां पातु सर्वदा ।।५।।
काल्यादि-योगिनी-देवी योनिकोणेषु संस्थिता । मनोहरा दुःख लभ्या योनिर्मां पातु सर्वदा ।।६।।
सदा शिवो मेरु-रूपो योनिमध्ये वसेत् सदा । वैâवल्यदा काममुक्ता योनिर्मां पातु सर्वदा ।।७।।
सर्व-देव स्तुता योनि सर्व-देव-प्रपूजिता । सर्व-प्रसवकत्र्री त्वं योनिर्मां पातु सर्वदा ।।८।।
सर्व-तीर्थ-मयी योनि: सर्व-पाप प्रणाशिनी । सर्वगेहे स्थिता योनि: योनिर्मां पातु सर्वदा ।।९।।
मुक्तिदा धनदा देवी सुखदा कीर्तिदा तथा । आरोग्यदा वीर-रता पञ्च-तत्व-युता सदा ।।१०।।
योनिस्तोत्रमिदं प्रोत्तं य: पठेत् योनि-सन्निधौ । शक्तिरूपा महादेवी तस्य गेहे सदा स्थिता ।।११।।
श्री कामाक्षी स्तोत्रम्
कल्पनोकहपुष्पजालविलसन्नीलालकां मातृकां कान्तां कञ्जदलेक्षणां कलिमलप्रध्वंसिनीं कालिकां ।
काञ्चीनूपुरहारहीरसुभगां काञ्चीपुरीनायकीं कामाक्षीं करिकुम्भसन्निभकुचां वन्दे महेशप्रियाम् ॥ १ ॥
काशाभांशुकभासुरां प्रविलसत्कोशातकीसन्निभां चन्द्रार्कानललोचनां सुरुचिरालङ्कारभूषोज्ज्वलाम् ।
ब्रह्मश्रीपतिवासवादिमुनिभिः संसेविताङ्घ्रिद्वयां कामाक्षीं गजराजमन्दगमनां वन्दे महेशप्रियाम् ॥ २ ॥
ऐं क्लीं सौरिति यां वदन्ति मुनयस्तत्त्वार्थरूपां परां वाचां आदिमकारणं हृदि सदा ध्यायन्ति यां योगिनः ।
बालां फालविलोचनां नवजपावर्णां सुषुम्नाश्रितां कामाक्षीं कलितावतंससुभगां वन्दे महेशप्रियाम् ॥ ३ ॥
यत्पादाम्बुजरेणुलेशमनिशं लब्ध्वा विधत्ते विधिर्-विश्वं तत्परिपाति विष्णुरखिलं यस्याः प्रसादाच्चिरम् ।
रुद्रः संहरति क्षणात्तदखिलं यन्मायया मोहितः कामाक्षीं अतिचित्रचारुचरितां वन्दे महेशप्रियाम् ॥ ४ ॥
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरां सुलक्षिततनुं क्षान्ताक्षरैर्लक्षितां वीक्षाशिक्षितराक्षसां त्रिभुवनक्षेमङ्करीं अक्षयाम् ।
साक्षाल्लक्षणलक्षिताक्षरमयीं दाक्षायणीं साक्षिणीं कामाक्षीं शुभलक्षणैः सुललितां वन्दे महेशप्रियाम् ॥ ५ ॥
ओङ्काराङ्गणदीपिकां उपनिषत्प्रासादपारावतीम् आम्नायाम्बुधिचन्द्रिकां अघतमःप्रध्वंसहंसप्रभाम् ।
काञ्चीपट्टणपञ्जराऽऽन्तरशुकीं कारुण्यकल्लोलिनीं कामाक्षीं शिवकामराजमहिषीं वन्दे महेशप्रियाम् ॥ ६ ॥
ह्रीङ्कारात्मकवर्णमात्रपठनाद् ऐन्द्रीं श्रियं तन्वतीं चिन्मात्रां भुवनेश्वरीं अनुदिनं भिक्षाप्रदानक्षमाम् ।
विश्वाघौघनिवारिणीं विमलिनीं विश्वम्भरां मातृकां कामाक्षीं परिपूर्णचन्द्रवदनां वन्दे महेशप्रियाम् ॥ ७ ॥
वाग्देवीति च यां वदन्ति मुनयः क्षीराब्धिकन्येति च क्षोणीभृत्तनयेति च श्रुतिगिरो यां आमनन्ति स्फुटम् ।
एकानेकफलप्रदां बहुविधाऽऽकारास्तनूस्तन्वतीं कामाक्षीं सकलार्तिभञ्जनपरां वन्दे महेशप्रियाम् ॥ ८ ॥
मायामादिमकारणं त्रिजगतां आराधिताङ्घ्रिद्वयाम् आनन्दामृतवारिराशिनिलयां विद्यां विपश्चिद्धियाम् ।
मायामानुषरूपिणीं मणिलसन्मध्यां महामातृकां कामाक्षीं करिराजमन्दगमनां वन्दे महेशप्रियाम् ॥ ९ ॥
कान्ता कामदुघा करीन्द्रगमना कामारिवामाङ्कगा कल्याणी कलितावतारसुभगा कस्तूरिकाचर्चिता कम्पातीररसालमूलनिलया कारुण्यकल्लोलिनी कल्याणानि करोतु मे भगवती काञ्चीपुरीदेवता ॥ १० ॥
☀☀☀श्री गर्भ रक्षाम्बिका स्तोत्रं☀☀☀
संतान के जन्म की माता-पिता के साथ समूचे परिवार को प्रतीक्षा रहती है। लेकिन आज की जीवनशैली में संतान का जन्म इतना आसान नहीं रहा और कई तरह की जटिलताओं के चलते शिशु गर्भ में सुरक्षित नहीं रह पाता है। पुराणों में गर्भ धारण करने के साथ ही स्त्रियों के लिए श्री गर्भ रक्षाम्बिका स्तोत्रं का वाचन उत्तम बताया गया है। प्रस्तुत है श्री गर्भ रक्षाम्बिका स्तोत्रं जो अजन्मी संतान की रक्षा करता है-
श्रीमाधवी काननस्थे गर्भरक्षाम्बिके पाहि भक्तां स्तुवन्तीम् ॥
वापीतटे वामभागेवामदेवस्य देवस्य देवि स्थिता त्वम् ।
मान्या वरेण्या वदान्या पाहि गर्भस्थजन्तून् तथा भक्तलोकान् ॥ १ ॥
श्रीमाधवी काननस्थे गर्भरक्षाम्बिके पाहि भक्तां स्तुवन्तीम् ॥
श्रीगर्भरक्षापुरे या दिव्यसौन्दर्ययुक्ता सुमाङ्गल्यगात्री ।
धात्री जनित्री जनानां दिव्यरूपां दयार्द्रां मनोज्ञां भजे त्वाम् ॥ २ ॥
श्रीमाधवी काननस्थे गर्भरक्षाम्बिके पाहि भक्तां स्तुवन्तीम् ॥
आषाढमासे सुपुण्ये शुक्रवारे सुगन्धेन गन्धेन लिप्ता ।
दिव्याम्बराकल्पवेषा वाजपेयादियागस्थभक्तैः सुदृष्टा ॥ ३ ॥
श्रीमाधवी काननस्थे गर्भरक्षाम्बिके पाहि भक्तां स्तुवन्तीम् ॥
कल्याणदात्रीं नमस्ये वेदिकाढ्यस्त्रिया गर्भरक्षाकरीं त्वाम् ।
बालैस्सदा सेविताङ्घ्रिं गर्भरक्षार्थमारादुपेतैरुपेताम् ॥ ४ ॥
श्रीमाधवी काननस्थे गर्भरक्षाम्बिके पाहि भक्तां स्तुवन्तीम् ॥
ब्रह्मोत्सवे विप्रवीथ्यां वाद्यघोषेण तुष्टां रथे सन्निविष्टाम् ।
सर्वार्थदात्रीं भजेऽहं देववृन्दैरपीड्यां जगन्मातरं त्वाम् ॥ ५ ॥
श्रीमाधवी काननस्थे गर्भरक्षाम्बिके पाहि भक्तां स्तुवन्तीम् ॥
एतत् कृतं स्तोत्ररत्नं दीक्षितानन्तरामेण देव्याश्च तुष्ट्यै ।
नित्यं पठेद्यस्तु भक्त्या पुत्रपौत्रादि भाग्यं भवेत्तस्य नित्यम् ॥ ६ ॥
श्रीमाधवी काननस्थे गर्भरक्षाम्बिके पाहि भक्तां स्तुवन्तीम् ॥
इति श्रीअनन्तरामदीक्षितवर्य विरचितं गर्भरक्षाम्बिका स्तोत्रम् ॥
अभिरामि स्तोत्रम्
नमस्ते ललिते देवि श्रीमत्सिंहासनेश्वरि । भक्तानामिष्टदे मातः अभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ १ ॥
चन्द्रोदयं कृतवती ताटङ्केन महेश्वरि । आयुर्देहि जगन्मातः अभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ २ ॥
सुधाघटेशश्रीकान्ते शरणागतवत्सले । आरोग्यं देहि मे नित्यं अभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ ३ ॥
कल्याणि मङ्गलं देहि जगन्मङ्गलकारिणि । ऐश्वर्यं देहि मे नित्यं अभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ ४ ॥
चन्द्रमण्डलमध्यस्थे महात्रिपुरसुन्दरि । श्रीचक्रराजनिलये अभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ ५ ॥
राजीवलोचने पूर्णे पूर्णचन्द्रविधायिनि । सौभाग्यं देहि मे नित्यं अभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ ६ ॥
गणेशस्कन्दजननि वेदरूपे धनेश्वरि । विद्यां च देहि मे कीर्तिं अभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ ७ ॥
सुवासिनीप्रिये मातः सौमाङ्गल्यविवर्धिनी । माङ्गल्यं देहि मे नित्यं अभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥
मार्कण्डेय महाभक्त सुब्रह्मण्य सुपूजिते । श्रीराजराजेश्वरी त्वं ह्यभिरामि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥
सान्निध्यं कुरु कल्याणी मम पूजागृहे शुभे । बिम्बे दीपे तथा पुष्पे हरिद्राकुङ्कुमे मम ॥ १० ॥
अभिराम्या इदं स्तोत्रं यः पठेच्छक्तिसन्निधौ । आयुर्बलं यशो वर्चो मङ्गलं च भवेत्सुखम् ॥ ११ ॥
अष्टादशशक्तिपीठ स्तोत्रम्
लङ्कायां शाङ्करीदेवी कामाक्षी काञ्चिकापुरे । प्रद्युम्ने शृङ्खलादेवी चामुण्डी क्रौञ्चपट्टणे ॥ १ ॥
अलम्पुरे जोगुलाम्बा श्रीशैले भ्रमराम्बिका । कोल्हापुरे महालक्ष्मी मुहुर्ये एकवीरा ॥ २ ॥
उज्जयिन्यां महाकाली पीठिकायां पुरुहूतिका । ओढ्यायां गिरिजादेवी माणिक्या दक्षवाटिके ॥ ३ ॥
हरिक्षेत्रे कामरूपी प्रयागे माधवेश्वरी । ज्वालायां वैष्णवीदेवी गया माङ्गल्यगौरिका ॥ ४ ॥
वारणाश्यां विशालाक्षी काश्मीरेतु सरस्वती । अष्टादश सुपीठानि योगिनामपि दुर्लभम् ॥ ५ ॥
सायङ्काले पठेन्नित्यं सर्वशत्रुविनाशनं । सर्वरोगहरं दिव्यं सर्वसम्पत्करं शुभम् ॥ ६ ॥
श्री इन्द्राक्षी स्तोत्रम्
नारद उवाच ।
इन्द्राक्षीस्तोत्रमाख्याहि नारायण गुणार्णव । पार्वत्यै शिवसम्प्रोक्तं परं कौतूहलं हि मे ॥
नारायण उवाच ।
इन्द्राक्षी स्तोत्र मन्त्रस्य माहात्म्यं केन वोच्यते । इन्द्रेणादौ कृतं स्तोत्रम् सर्वापद्विनिवारणम् ॥
तदेवाहं ब्रवीम्यद्य पृच्छतस्तव नारद ।
अस्य श्री इन्द्राक्षीस्तोत्रमहामन्त्रस्य, शचीपुरन्दर ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः, इन्द्राक्षी दुर्गा देवता, लक्ष्मीर्बीजं, भुवनेश्वरी शक्तिः, भवानी कीलकं, मम इन्द्राक्षी प्रसाद सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
करन्यासः –
इन्द्राक्ष्यै अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । महालक्ष्म्यै तर्जनीभ्यां नमः । महेश्वर्यै मध्यमाभ्यां नमः ।
अम्बुजाक्ष्यै अनामिकाभ्यां नमः । Nकात्यायन्यै कनिष्ठिकाभ्यां नमः । कौमार्यै करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
अङ्गन्यासः –
इन्द्राक्ष्यै हृदयाय नमः । महालक्ष्म्यै शिरसे स्वाहा । महेश्वर्यै शिखायै वषट् । अम्बुजाक्ष्यै कवचाय हुम् ।
कात्यायन्यै नेत्रत्रयाय वौषट् । कौमार्यै अस्त्राय फट् । भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बन्धः ॥
ध्यानम् –
नेत्राणां दशभिश्शतैः परिवृतामत्युग्रचर्माम्बरां । हेमाभां महतीं विलम्बितशिखामामुक्तकेशान्विताम् ॥
घण्टामण्डितपादपद्मयुगलां नागेन्द्रकुंभस्तनीं । इन्द्राक्षीं परिचिन्तयामि मनसा कल्पोक्तसिद्धिप्रदाम् ॥ १
इन्द्राक्षीं द्विभुजां देवीं पीतवस्त्रद्वयान्विताम् । वामहस्ते वज्रधरां दक्षिणेन वरप्रदाम् ॥
इन्द्राक्षीं सहयुवतीं नानालङ्कारभूषिताम् । प्रसन्नवदनांभोजामप्सरोगणसेविताम् ॥ २
द्विभुजां सौम्यवदानां पाशाङ्कुशधरां परां । त्रैलोक्यमोहिनीं देवीं इन्द्राक्षी नाम कीर्तिताम् ॥ ३
पीताम्बरां वज्रधरैकहस्तां नानाविधालङ्करणां प्रसन्नाम् ।
त्वामप्सरस्सेवितपादपद्मां इन्द्राक्षीं वन्दे शिवधर्मपत्नीम् ॥ ४
पञ्चपूजा –
लं पृथिव्यात्मिकायै गन्धं समर्पयामि । हं आकाशात्मिकायै पुष्पैः पूजयामि ।
यं वाय्वात्मिकायै धूपमाघ्रापयामि । रं अग्न्यात्मिकायै दीपं दर्शयामि ।
वं अमृतात्मिकायै अमृतं महानैवेद्यं निवेदयामि । सं सर्वात्मिकायै सर्वोपचारपूजां समर्पयामि ॥
दिग्देवता रक्ष –
इन्द्र उवाच ।
इन्द्राक्षी पूर्वतः पातु पात्वाग्नेय्यां तथेश्वरी । कौमारी दक्षिणे पातु नैरृत्यां पातु पार्वती ॥ १
वाराही पश्चिमे पातु वायव्ये नारसिंह्यपि । उदीच्यां कालरात्री मां ऐशान्यां सर्वशक्तयः ॥ २
भैरव्योर्ध्वं सदा पातु पात्वधो वैष्णवी तथा । एवं दशदिशो रक्षेत्सर्वदा भुवनेश्वरी ॥ ३
ओं ह्रीं श्रीं इन्द्राक्ष्यै नमः ।
स्तोत्रम् –
इन्द्राक्षी नाम सा देवी देवतैस्समुदाहृता । गौरी शाकंभरी देवी दुर्गानाम्नीति विश्रुता ॥ १ ॥
नित्यानन्दी निराहारी निष्कलायै नमोऽस्तु ते । कात्यायनी महादेवी चन्द्रघण्टा महातपाः ॥ २ ॥
सावित्री सा च गायत्री ब्रह्माणी ब्रह्मवादिनी । नारायणी भद्रकाली रुद्राणी कृष्णपिङ्गला ॥ ३ ॥
अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्री तपस्विनी । मेघस्वना सहस्राक्षी विकटाङ्गी जडोदरी ॥ ४ ॥
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला । अजिता भद्रदाऽनन्ता रोगहन्त्री शिवप्रिया ॥ ५ ॥
शिवदूती कराली च प्रत्यक्षपरमेश्वरी । इन्द्राणी इन्द्ररूपा च इन्द्रशक्तिःपरायणी ॥ ६ ॥
सदा सम्मोहिनी देवी सुन्दरी भुवनेश्वरी । एकाक्षरी परा ब्राह्मी स्थूलसूक्ष्मप्रवर्धनी ॥ ७ ॥
रक्षाकरी रक्तदन्ता रक्तमाल्याम्बरा परा । महिषासुरसंहर्त्री चामुण्डा सप्तमातृका ॥ ८ ॥
वाराही नारसिंही च भीमा भैरववादिनी । श्रुतिस्स्मृतिर्धृतिर्मेधा विद्यालक्ष्मीस्सरस्वती ॥ ९ ॥
अनन्ता विजयाऽपर्णा मानसोक्तापराजिता । भवानी पार्वती दुर्गा हैमवत्यम्बिका शिवा ॥ १० ॥
शिवा भवानी रुद्राणी शङ्करार्धशरीरिणी । ऐरावतगजारूढा वज्रहस्ता वरप्रदा ॥ ११ ॥
धूर्जटी विकटी घोरी ह्यष्टाङ्गी नरभोजिनी । भ्रामरी काञ्चि कामाक्षी क्वणन्माणिक्यनूपुरा ॥ १२ ॥
ह्रीङ्कारी रौद्रभेताली ह्रुङ्कार्यमृतपाणिनी । त्रिपाद्भस्मप्रहरणा त्रिशिरा रक्तलोचना ॥ १३ ॥
नित्या सकलकल्याणी सर्वैश्वर्यप्रदायिनी । दाक्षायणी पद्महस्ता भारती सर्वमङ्गला ॥ १४ ॥
कल्याणी जननी दुर्गा सर्वदुःखविनाशिनी । इन्द्राक्षी सर्वभूतेशी सर्वरूपा मनोन्मनी ॥ १५ ॥
महिषमस्तकनृत्यविनोदन-स्फुटरणन्मणिनूपुरपादुका । जननरक्षणमोक्षविधायिनी जयतु शुम्भनिशुम्भनिषूदिनी ॥१६
शिवा च शिवरूपा च शिवशक्तिपरायणी । मृत्युञ्जयी महामायी सर्वरोगनिवारिणी ॥ १७ ॥
ऐन्द्रीदेवी सदाकालं शान्तिमाशुकरोतु मे । ईश्वरार्धाङ्गनिलया इन्दुबिम्बनिभानना ॥ १८ ॥
सर्वोरोगप्रशमनी सर्वमृत्युनिवारिणी । अपवर्गप्रदा रम्या आयुरारोग्यदायिनी ॥ १९ ॥
इन्द्रादिदेवसंस्तुत्या इहामुत्रफलप्रदा । इच्छाशक्तिस्वरूपा च इभवक्त्राद्विजन्मभूः ॥ २० ॥
भस्मायुधाय विद्महे रक्तनेत्राय धीमहि तन्नो ज्वरहरः प्रचोदयात् ॥ २१ ॥
मन्त्रः –
ओं ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं क्लूं इन्द्राक्ष्यै नमः ॥ २२
ओं नमो भगवती इन्द्राक्षी सर्वजनसम्मोहिनी कालरात्री नारसिंही सर्वशत्रुसंहारिणी अनले अभये अजिते अपराजिते महासिंहवाहिनी महिषासुरमर्दिनी हन हन मर्दय मर्दय मारय मारय शोषय शोषय दाहय दाहय महाग्रहान् संहर संहर यक्षग्रह राक्षसग्रह स्कन्दग्रह विनायकग्रह बालग्रह कुमारग्रह चोरग्रह भूतग्रह प्रेतग्रह पिशाचग्रह कूष्माण्डग्रहादीन् मर्दय मर्दय निग्रह निग्रह धूमभूतान्सन्त्रावय सन्त्रावय भूतज्वर प्रेतज्वर पिशाचज्वर उष्णज्वर पित्तज्वर वातज्वर श्लेष्मज्वर कफज्वर आलापज्वर सन्निपातज्वर माहेन्द्रज्वर कृत्रिमज्वर कृत्यादिज्वर एकाहिकज्वर द्वयाहिकज्वर त्रयाहिकज्वर चातुर्थिकज्वर पञ्चाहिकज्वर पक्षज्वर मासज्वर षण्मासज्वर संवत्सरज्वर ज्वरालापज्वर सर्वज्वर सर्वाङ्गज्वरान् नाशय नाशय हर हर हन हन दह दह पच पच ताडय ताडय आकर्षय आकर्षय विद्वेषय विद्वेषय स्तम्भय स्तम्भय मोहय मोहय उच्चाटय उच्चाटय हुं फट् स्वाहा ॥ २३
ओं ह्रीं ओं नमो भगवती त्रैलोक्यलक्ष्मी सर्वजनवशङ्करी सर्वदुष्टग्रहस्तम्भिनी कङ्काली कामरूपिणी कालरूपिणी घोररूपिणी परमन्त्रपरयन्त्र प्रभेदिनी प्रतिभटविध्वंसिनी परबलतुरगविमर्दिनी शत्रुकरच्छेदिनी शत्रुमांसभक्षिणी सकलदुष्टज्वरनिवारिणी भूत प्रेत पिशाच ब्रह्मराक्षस यक्ष यमदूत शाकिनी डाकिनी कामिनी स्तम्भिनी मोहिनी वशङ्करी कुक्षिरोग शिरोरोग नेत्ररोग क्षयापस्मार कुष्ठादि महारोगनिवारिणी मम सर्वरोगं नाशय नाशय ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः हुं फट् स्वाहा ॥ २४
ओं नमो भगवती माहेश्वरी महाचिन्तामणी दुर्गे सकलसिद्धेश्वरी सकलजनमनोहारिणी कालकालरात्री महाघोररूपे प्रतिहतविश्वरूपिणी मधुसूदनी महाविष्णुस्वरूपिणी शिरश्शूल कटिशूल अङ्गशूल पार्श्वशूल नेत्रशूल कर्णशूल पक्षशूल पाण्डुरोग कामारादीन् संहर संहर नाशय नाशय वैष्णवी ब्रह्मास्त्रेण विष्णुचक्रेण रुद्रशूलेन यमदण्डेन वरुणपाशेन वासववज्रेण सर्वानरीं भञ्जय भञ्जय राजयक्ष्म क्षयरोग तापज्वरनिवारिणी मम सर्वज्वरं नाशय नाशय य र ल व श ष स ह सर्वग्रहान् तापय तापय संहर संहर छेदय छेदय उच्चाटय उच्चाटय ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् स्वाहा ॥ २५
उत्तरन्यासः –
करन्यासः –
इन्द्राक्ष्यै अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । महालक्ष्म्यै तर्जनीभ्यां नमः । महेश्वर्यै मध्यमाभ्यां नमः ।
अम्बुजाक्ष्यै अनामिकाभ्यां नमः । कात्यायन्यै कनिष्ठिकाभ्यां नमः । कौमार्यै करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
अङ्गन्यासः –
इन्द्राक्ष्यै हृदयाय नमः । महालक्ष्म्यै शिरसे स्वाहा । महेश्वर्यै शिखायै वषट् ।
अम्बुजाक्ष्यै कवचाय हुम् । कात्यायन्यै नेत्रत्रयाय वौषट् । कौमार्यै अस्त्राय फट् । भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्विमोकः ॥
समर्पणं –
गुह्यादि गुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपं । सिद्धिर्भवतु मे देवी त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरान् ॥ २६
फलश्रुतिः –
नारायण उवाच ।
एतैर्नामशतैर्दिव्यैः स्तुता शक्रेण धीमता । आयुरारोग्यमैश्वर्यं अपमृत्युभयापहम् ॥ २७
क्षयापस्मारकुष्ठादि तापज्वरनिवारणं । चोरव्याघ्रभयं तत्र शीतज्वरनिवारणम् ॥ २८
माहेश्वरमहामारी सर्वज्वरनिवारणं । शीतपैत्तकवातादि सर्वरोगनिवारणम् ॥ २९
सन्निज्वरनिवारणं सर्वज्वरनिवारणं । सर्वरोगनिवारणं सर्वमङ्गलवर्धनम् ॥ ३०
शतमावर्तयेद्यस्तु मुच्यते व्याधिबन्धनात् । आवर्तयन्सहस्रात्तु लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ३१
एतत् स्तोत्रम् महापुण्यं जपेदायुष्यवर्धनम् । विनाशाय च रोगाणामपमृत्युहराय च ॥ ३२ ॥
द्विजैर्नित्यमिदं जप्यं भाग्यारोग्याभीप्सुभिः । नाभिमात्रजलेस्थित्वा सहस्रपरिसङ्ख्यया ॥ ३३ ॥
जपेत्स्तोत्रमिमं मन्त्रं वाचां सिद्धिर्भवेत्ततः । अनेनविधिना भक्त्या मन्त्रसिद्धिश्च जायते ॥ ३४ ॥
सन्तुष्टा च भवेद्देवी प्रत्यक्षा सम्प्रजायते । सायं शतं पठेन्नित्यं षण्मासात्सिद्धिरुच्यते ॥ ३५ ॥
चोरव्याधिभयस्थाने मनसाह्यनुचिन्तयन् । संवत्सरमुपाश्रित्य सर्वकामार्थसिद्धये ॥ ३६ ॥
राजानं वश्यमाप्नोति षण्मासान्नात्र सम्शयः । अष्टदोर्भिस्समायुक्ते नानायुद्धविशारदे ॥ ३७ ॥
भूतप्रेतपिशाचेभ्यो रोगारातिमुखैरपि । नागेभ्यः विषयन्त्रेभ्यः आभिचारैर्महेश्वरी ॥ ३८ ॥
रक्ष मां रक्ष मां नित्यं प्रत्यहं पूजिता मया । सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके देवी नारायणी नमोऽस्तु ते ॥ ३९ ॥
वरं प्रदाद्महेन्द्राय देवराज्यं च शाश्वतं । इन्द्रस्तोत्रमिदं पुण्यं महदैश्वर्यकारणम् ॥ ४० ॥
इति इन्द्राक्षी स्तोत्रम् ।
श्री गौरी सप्तश्लोकीस्तुतिः
करोपान्ते कान्ते वितरणरवन्ते विदधतीं नवां वीणां शोणामभिरुचिभरेणाङ्कवदनां ।
सदा वन्दे मन्देतरमतिरहं देशिकवशात्कृपालम्बामम्बां कुसुमितकदम्बाङ्कणगृहाम् ॥ १ ॥
शशिप्रख्यं मुख्यं कृतकमलसख्यं तव मुखं सुधावासं हासं स्मितरुचिभिरासन्न कुमुदं ।
कृपापात्रे नेत्रे दुरितकरितोत्रेच नमतां सदा लोके लोकेश्वरि विगतशोकेन मनसा ॥ २ ॥
अपि व्याधा वाधावपि सति समाधाय हृदि ता मनौपम्यां रम्यां मुनिभिरवगम्यां तव कलां,
निजामाद्यां विद्यां नियतमनवद्यां न कलये न मातङ्गीमङ्गीकृतसरससङ्गीतरसिकाम् ॥ ३ ॥
स्फुरद्रूपानीपावनिरुहसमीपाश्रयपरा सुधाधाराधाराधररुचिरुदारा करुणया ।
स्तुति प्रीता गीतामुनिभिरुपनीता तव कला त्रयीसीमा सा मामवतु सुरसामाजिकमता ॥ ४ ॥
तुलाकोटीकोटी किरणपरिपाटि दिनकरं नखच्छायामाया शशिनलिनदायादविभवं ।
पदं सेवे भावे तव विपदभावे विलसितं जगन्मातः प्रातः कमलमुखि नातः परतरम् ॥ ५ ॥
कनत्फालां बालां ललितशुकलीलाम्बुजकरां लसद्धाराधारां कचविजितधाराधररुचिं ।
रमेन्द्राणीवाणी लसदसितवेणीसुमपदां महत्सीमां श्यामामरुणगिरिवामां भज मते ॥ ६ ॥
गजारण्य़े पुण्ये श्रितजनशरण्ये भगवती जपावर्णापर्णां तरलतरकर्णान्तनयना ।
अनाद्यन्ता शान्ताबुधजनसुसन्तानलतिका जगन्माता पूता तुहिनगिरिजाता विजयते ॥ ७ ॥
गौर्यास्सप्तस्तुतिं नित्यं प्रभाते नियतः पठेत् । तस्यसर्वाणि सिद्ध्यन्ति वाञ्छितानि न सम्शयः ॥ ८ ॥
गौरीनवरत्नमालिकास्तवः
वाणीं जितशुकवाणी मलिकुलवेणीं भवाम्बुधिद्रोणिं । वीणाशुकशिशुपाणिं नतगीर्वाणीं नमामि शर्वाणीम् ॥ १ ॥
कुवलयदलनीलाङ्गीं कुवलयरक्षैकदीक्षितापाङ्गीम् । लोचनविजितकुरङ्गीं मातङ्गीं न्ॐइ शङ्करार्धाङ्गीम् ॥ २ ॥
कमलां कमलजकान्तां कलसारसदत्तकान्तकरकमलां ।करयुगलविधृतकमलां विमलाङ्कमलाङ्कचूडसकलकलाम् ॥३
सुन्दरहिमकरवदनां कुन्दसुरदनां मुकुन्दनिधिसदनां । करुणोज्जीवितमदनां सुरकुशलायासुरेषु कृतदमनाम् ॥ ४ ॥
अरुणाधरजितबिम्बां जगदम्बां गमनविजितकादम्बां । पालितसुतजनकदम्बां पृथुलनितम्बां भजे सहेरम्बाम् ॥ ५ ॥
शरणागतजनभरणां करुणावरुणालयाब्जचरणां । मणिमयदिव्याभरणां चरणाम्भोजातसेवकोद्धरणाम् ॥ ६ ॥
तुङ्गस्तनजितकुम्भां कृतपरिरम्भां शिवेन गुहडिंभां । दारितशुम्भनिशुम्भां नर्तितरम्भां पुरो विगतदम्भाम् ॥ ७ ॥
नतजनरक्षादीक्षां दक्षां प्रत्यक्षदैवताध्यक्षाम् । वाहीकृतहर्यक्षां क्षपितविपक्षां सुरेषु कृतरक्षाम् ॥ ८ ॥
धन्यां सुरवरमान्यां हिमगिरिकन्यान्त्रिलोकमूर्धन्यां । विहृतसुरद्रुमवन्यां वेद्मि विना त्वांनदेवतामन्याम् ॥ ९ ॥
एतां नवमणिमालां पठन्ति भक्त्येहा ये पराशक्त्या । तेषां वदने सदने नृत्यति वाणी रमा च परममुदा ॥ १० ॥
श्री देवी खड्गमाला स्तोत्रम्
प्रार्थना ।
ह्रीङ्कारासनगर्भितानलशिखां सौः क्लीं कलां बिभ्रतीं सौवर्णाम्बरधारिणीं वरसुधाधौतां त्रिणेत्रोज्ज्वलाम् ।
वन्दे पुस्तकपाशमङ्कुशधरां स्रग्भूषितामुज्ज्वलां त्वां गौरीं त्रिपुरां परात्परकलां श्रीचक्रसञ्चारिणीम् ॥
अस्य श्रीशुद्धशक्तिमालामहामन्त्रस्य, उपस्थेन्द्रियाधिष्ठायी वरुणादित्य ऋषिः, दैवी गायत्री छन्दः, सात्त्विक
ककारभट्टारकपीठस्थित कामेश्वराङ्कनिलया महाकामेश्वरी श्री ललिता भट्टारिका देवता, ऐं बीजं क्लीं शक्तिः सौः कीलकं मम
खड्गसिद्ध्यर्थे सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । मूलमन्त्रेण षडङ्गन्यासं कुर्यात् ॥
ध्यानम् ।
आरक्ताभां त्रिनेत्रामरुणिमवसनां रत्नताटङ्करम्यां । हस्ताम्भोजैस्सपाशाङ्कुशमदन धनुस्सायकैर्विस्फुरन्तीम् ।
आपीनोत्तुङ्गवक्षोरुहकलशलुठत्तारहारोज्ज्वलाङ्गीं । ध्यायेदम्भोरुहस्थामरुणिमवसनामीश्वरीमीश्वराणाम् ॥
लमित्यादि पञ्च पूजां कुर्यात्, यथाशक्ति मूलमन्त्रं जपेत् ।
लं – पृथिवीतत्त्वात्मिकायै श्रीललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै गन्धं परिकल्पयामि – नमः
हं – आकाशतत्त्वात्मिकायै श्रीललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै पुष्पं परिकल्पयामि – नमः
यं – वायुतत्त्वात्मिकायै श्रीललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै धूपं परिकल्पयामि – नमः
रं – तेजस्तत्त्वात्मिकायै श्रीललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै दीपं परिकल्पयामि – नमः
वं – अमृततत्त्वात्मिकायै श्रीललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै अमृतनैवेद्यं परिकल्पयामि – नमः
सं – सर्वतत्त्वात्मिकायै श्रीललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै ताम्बूलादिसर्वोपचारान् परिकल्पयामि – नमः
(श्रीदेवी सम्बोधनं-१)
ओं ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ओं नमस्त्रिपुरसुन्दरि ।
(न्यासाङ्गदेवताः-६)
हृदयदेवि, शिरोदेवि, शिखादेवि, कवचदेवि, नेत्रदेवि, अस्त्रदेवि,
(तिथिनित्यादेवताः-१६)
कामेश्वरि, भगमालिनि, नित्यक्लिन्ने, भेरुण्डे, वह्निवासिनि, महावज्रेश्वरि, शिवदूति, त्वरिते, कुलसुन्दरि, नित्ये, नीलपताके, विजये, सर्वमङ्गले, ज्वालामालिनि, चित्रे, महानित्ये,
(दिव्यौघगुरवः-७)
परमेश्वरपरमेश्वरि, मित्रेशमयि, षष्ठीशमयि, उड्डीशमयि, चर्यानाथमयि, लोपामुद्रामयि, अगस्त्यमयि,
(सिद्धौघगुरवः-४)
कालतापनमयि, धर्माचार्यमयि, मुक्तकेशीश्वरमयि, दीपकलानाथमयि,
(मानवौघगुरवः-८)
विष्णुदेवमयि, प्रभाकरदेवमयि, तेजोदेवमयि, मनोजदेवमयि, कल्याणदेवमयि, वासुदेवमयि, रत्नदेवमयि, श्रीरामानन्दमयि,
(श्रीचक्र प्रथमावरणदेवताः-३०)
अणिमासिद्धे, लघिमासिद्धे, [गरिमासिद्धे], महिमासिद्धे, ईशित्वसिद्धे, वशित्वसिद्धे, प्राकाम्यसिद्धे, भुक्तिसिद्धे, इच्छासिद्धे, प्राप्तिसिद्धे, सर्वकामसिद्धे, ब्राह्मि, माहेश्वरि, कौमारि, वैष्णवि, वाराहि, माहेन्द्रि, चामुण्डे, महालक्ष्मि, सर्वसङ्क्षोभिणी, सर्वविद्राविणी, सर्वाकर्षिणी, सर्ववशङ्करि, सर्वोन्मादिनि, सर्वमहाङ्कुशे, सर्वखेचरि, सर्वबीजे, सर्वयोने, सर्वत्रिखण्डे, त्रैलोक्यमोहनचक्रस्वामिनि, प्रकटयोगिनि,
(श्रीचक्र द्वितीयावरणदेवताः-१८) :-कामाकर्षिणि, बुद्ध्याकर्षिणि, अहङ्काराकर्षिणि, शब्दाकर्षिणि, स्पर्शाकर्षिणि, रूपाकर्षिणि, रसाकर्षिणि, गन्धाकर्षिणि, चित्ताकर्षिणि, धैर्याकर्षिणि, स्मृत्याकर्षिणि, नामाकर्षिणि, बीजाकर्षिणि, आत्माकर्षिणि, अमृताकर्षिणि, शरीराकर्षिणि, सर्वाशापरिपूरकचक्रस्वामिनि, गुप्तयोगिनि,
(श्रीचक्र तृतीयावरणदेवताः-१०)
अनङ्गकुसुमे, अनङ्गमेखले, अनङ्गमदने, अनङ्गमदनातुरे, अनङ्गरेखे, अनङ्गवेगिनि, अनङ्गाङ्कुशे, अनङ्गमालिनि, सर्वसङ्क्षोभणचक्रस्वामिनि, गुप्ततरयोगिनि,
(श्रीचक्र चतुर्थावरणदेवताः-१६)
सर्वसङ्क्षोभिणि, सर्वविद्राविणि, सर्वाकर्षिणि, सर्वह्लादिनि, सर्वसम्मोहिनि, सर्वस्तम्भिनि, सर्वजृम्भिणि, सर्ववशङ्करि, सर्वरञ्जनि, सर्वोन्मादिनि, सर्वार्थसाधिके, सर्वसम्पत्तिपूरणि, सर्वमन्त्रमयि, सर्वद्वन्द्वक्षयङ्करि, सर्वसौभाग्यदायकचक्रस्वामिनि, सम्प्रदाययोगिनि,
(श्रीचक्र पञ्चमावरणदेवताः-१२)
सर्वसिद्धिप्रदे, सर्वसम्पत्प्रदे, सर्वप्रियङ्करि, सर्वमङ्गलकारिणि, सर्वकामप्रदे, सर्वदुःखविमोचनि, सर्वमृत्युप्रशमनि, सर्वविघ्ननिवारिणि, सर्वाङ्गसुन्दरि, सर्वसौभाग्यदायिनि, सर्वार्थसाधकचक्रस्वामिनि, कुलोत्तीर्णयोगिनि,
(श्रीचक्र षष्ठावरणदेवताः-१२)
सर्वज्ञे, सर्वशक्ते, सर्वैश्वर्यप्रदायिनि, सर्वज्ञानमयि, सर्वव्याधिविनाशिनि, सर्वाधारस्वरूपे, सर्वपापहरे, सर्वानन्दमयि, सर्वरक्षास्वरूपिणि, सर्वेप्सितफलप्रदे, सर्वरक्षाकरचक्रस्वामिनि, निगर्भयोगिनि,
(श्रीचक्र सप्तमावरणदेवताः-१०)
वशिनि, कामेश्वरि, मोदिनि, विमले, अरुणे, जयिनि, सर्वेश्वरि, कौलिनि, सर्वरोगहरचक्रस्वामिनि, रहस्ययोगिनि,
(श्रीचक्र अष्टमावरणदेवताः-९)
बाणिनि, चापिनि, पाशिनि, अङ्कुशिनि, महाकामेश्वरि, महावज्रेश्वरि, महाभगमालिनि, सर्वसिद्धिप्रदचक्रस्वामिनि, अतिरहस्ययोगिनि,
(श्रीचक्र नवमावरणदेवताः-३)
श्रीश्रीमहाभट्टारिके, सर्वानन्दमयचक्रस्वामिनि, परापररहस्ययोगिनि,
(नवचक्रेश्वरी नामानि-९)
त्रिपुरे, त्रिपुरेशि, त्रिपुरसुन्दरि, त्रिपुरवासिनि, त्रिपुराश्रीः, त्रिपुरमालिनि, त्रिपुरासिद्धे, त्रिपुराम्ब, महात्रिपुरसुन्दरि,
(श्रीदेवी विशेषणानि, नमस्कारनवाक्षरी च-९)
महामहेश्वरि, महामहाराज्ञि, महामहाशक्ते, महामहागुप्ते, महामहाज्ञप्ते, महामहानन्दे, महामहास्कन्धे, महामहाशये, महामहा श्रीचक्रनगरसाम्राज्ञि नमस्ते नमस्ते नमस्ते नमः ।
फलश्रुतिः ।
एषा विद्या महासिद्धिदायिनी स्मृतिमात्रतः । अग्निवातमहाक्षोभे राजाराष्ट्रस्य विप्लवे ॥
लुण्ठने तस्करभये सङ्ग्रामे सलिलप्लवे । समुद्रयानविक्षोभे भूतप्रेतादिके भये ॥
अपस्मारज्वरव्याधि-मृत्युक्षामादिजे भये । शाकिनी पूतनायक्षरक्षःकूश्माण्डजे भये ॥
मित्रभेदे ग्रहभये व्यसनेष्वाभिचारिके । अन्येष्वपि च दोषेषु मालामन्त्रं स्मरेन्नरः ॥
सर्वोपद्रवनिर्मुक्त-स्साक्षाच्छिवमयोभवेत् । आपत्काले नित्यपूजां विस्तारात्कर्तुमारभेत् ॥
एकवारं जपध्यानम् सर्वपूजाफलं लभेत् । नवावरणदेवीनां ललिताया महौजसः ॥
एकत्रगणनारूपो वेदवेदाङ्गगोचरः । सर्वागमरहस्यार्थः स्मरणात्पापनाशिनी ॥
ललिताया महेशान्या माला विद्यामहीयसी । नरवश्यं नरेन्द्राणां वश्यं नारीवशङ्करम् ॥
अणिमादिगुणैश्वर्यं रञ्जनं पापभञ्जनम् । तत्तदावरणस्थायि देवताबृन्दमन्त्रकम् ॥
मालामन्त्रं परं गुह्यं परंधाम प्रकीर्तितम् । शक्तिमाला पञ्चधा स्याच्छिवमाला च तादृशी ॥
तस्माद्गोप्यतराद्गोप्यं रहस्यं भुक्तिमुक्तिदम् ॥
इति श्रीवामकेश्वरतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्री देवीखड्गमालास्तोत्ररत्नम् ।
देविभुजङ्ग स्तोत्रम्
विरिञ्च्यादिभिः पञ्चभिर्लोकपालैः –समूढे महानन्दपीठे निषण्णम् ।
धनुर्बाणपाशाङ्कुशप्रोतहस्तं –महस्त्रैपुरं शङ्कराद्वैतमव्यात् ॥ १ ॥
यदन्नादिभिः पञ्चभिः कोशजालैः –शिरःपक्षपुच्छात्मकैरन्तरन्तः ।
निगूढे महायोगपीठे निषण्णं –पुरारेरथान्तःपुरं नौमि नित्यम् ॥ २ ॥
विरिञ्चादिरूपैः प्रपञ्चे विहृत्य –स्वतन्त्रा यदा स्वात्मविश्रान्तिरेषा ।
तदा मानमातृप्रमेयातिरिक्तं –परानन्दमीडे भवानि त्वदीयम् ॥ ३ ॥
विनोदाय चैतन्यमेकं विभज्य –द्विधा देवि जीवः शिवश्चेति नाम्ना ।
शिवस्यापि जीवत्वमापादयन्ती –पुनर्जीवमेनं शिवं वा करोषि ॥ ४ ॥
समाकुञ्च्य मूलं हृदि न्यस्य वायुं –मनो भ्रूबिलं प्रापयित्वा निवृत्ताः ।
ततः सच्चिदानन्दरूपे पदे ते –भवन्त्यम्ब जीवाः शिवत्वेन केचित् ॥ ५ ॥
शरीरेऽतिकष्टे रिपौ पुत्रवर्गे –सदाभीतिमूले कलत्रे धने वा । न कश्चिद्विरज्यत्यहो देवि चित्रं –कथं त्वत्कटाक्षं विना तत्त्वबोधः ॥ ६ ॥
शरीरे धनेऽपत्यवर्गे कलत्रे –विरक्तस्य सद्देशिकादिष्टबुद्धेः । यदाकस्मिकं ज्योतिरानन्दरूपं –समाधौ भवेत्तत्त्वमस्यम्ब सत्यम् ॥ ७ ॥
मृषान्यो मृषान्यः परो मिश्रमेनं –परः प्राकृतं चापरो बुद्धिमात्रम् ।
प्रपञ्चं मिमीते मुनीनां गणोऽयं –तदेतत्त्वमेवेति न त्वां जहीमः ॥ ८ ॥
निवृत्तिः प्रतिष्ठा च विद्या च शान्ति-स्तथा शान्त्यतीतेति पञ्चीकृताभिः ।
कलाभिः परे पञ्चविंशात्मिकाभि-स्त्वमेकैव सेव्या शिवाभिन्नरूपा ॥ ९ ॥
अगाधेऽत्र संसारपङ्के निमग्नं –कलत्रादिभारेण खिन्नं नितान्तम् ।
महामोहपाशौघबद्धं चिरान्मां –समुद्धर्तुमम्ब त्वमेकैव शक्ता ॥ १० ॥
समारभ्य मूलं गतो ब्रह्मचक्रं –भवद्दिव्यचक्रेश्वरीधामभाजः ।
महासिद्धिसङ्घातकल्पद्रुमाभा-नवाप्याम्ब नादानुपास्ते च योगी ॥ ११ ॥
गणेशैर्ग्रहैरम्ब नक्षत्रपङ्क्त्या –तथा योगिनीराशिपीठैरभिन्नम् ।
महाकालमात्मानमामृश्य लोकं –विधत्से कृतिं वा स्थितिं वा महेशि ॥ १२ ॥
लसत्तारहारामतिस्वच्छचेलां –वहन्तीं करे पुस्तकं चाक्षमालाम् ।
शरच्चन्द्रकोटिप्रभाभासुरां त्वां –सकृद्भावयन्भारतीवल्लभः स्यात् ॥ १३ ॥
समुद्यत्सहस्रार्कबिम्बाभवक्त्रां –स्वभासैव सिन्दूरिताजाण्डकोटिम् ।
धनुर्बाणपाशाङ्कुशान्धारयन्तीं –स्मरन्तः स्मरं वापि संमोहयेयुः ॥ १४ ॥
मणिस्यूतताटङ्कशोणास्यबिम्बां –हरित्पट्टवस्त्रां त्वगुल्लासिभूषाम् ।
हृदा भावयंस्तप्तहेमप्रभां त्वां –श्रियो नाशयत्यम्ब चाञ्चल्यभावम् ॥ १५ ॥
महामन्त्रराजान्तबीजं पराख्यं –स्वतो न्यस्तबिन्दु स्वयं न्यस्तहार्दम् ।
भवद्वक्त्रवक्षोजगुह्याभिधानं –स्वरूपं सकृद्भावयेत्स त्वमेव ॥ १६ ॥
तथान्ये विकल्पेषु निर्विण्णचित्ता-स्तदेकं समाधाय बिन्दुत्रयं ते ।
परानन्दसन्धानसिन्धौ निमग्नाः –पुनर्गर्भरन्ध्रं न पश्यन्ति धीराः ॥ १७ ॥
त्वदुन्मेषलीलानुबन्धाधिकारा-न्विरिञ्च्यादिकांस्त्वद्गुणाम्भोधिबिन्दून् ।
भजन्तस्तितीर्षन्ति संसारसिन्धुं –शिवे तावकीना सुसम्भावनेयम् ॥ १८ ॥
कदा वा भवत्पादपोतेन तूर्णं –भवाम्भोधिमुत्तीर्य पूर्णान्तरङ्गः ।
निमज्जन्तमेनं दुराशाविषाब्धौ –समालोक्य लोकं कथं पर्युदास्से ॥ १९ ॥
कदावा हृषीकाणि साम्यं भजेयुः –कदा वा न शत्रुर्न मित्रं भवानि ।
कदा वा दुराशाविषूचीविलोपः –कदा वा मनो मे समूलं विनश्येत् ॥ २० ॥
नमोवाकमाशास्महे देवि युष्म-त्पदाम्भोजयुग्माय तिग्माय गौरि ।
विरिञ्च्यादिभास्वत्किरीटप्रतोली-प्रदीपायमानप्रभाभास्वराय ॥ २१ ॥
कचे चन्द्ररेखं कुचे तारहारं –करे स्वादुचापं शरे षट्पदौघम् ।
स्मरामि स्मरारेरभिप्रायमेकं –मदाघूर्णनेत्रं मदीयं निधानम् ॥ २२ ॥
शरेष्वेव नासा धनुष्वेव जिह्वा –जपापाटले लोचने ते स्वरूपे ।
त्वगेषा भवच्चन्द्रखण्डे श्रवो मे –गुणे ते मनोवृत्तिरम्ब त्वयि स्यात् ॥ २३ ॥
जगत्कर्मधीरान्वचोधूतकीरान् –कुचन्यस्तहाराङ्कृपासिन्धुपूरान् ।
भवाम्भोधिपारान्महापापदूरान् –भजे वेदसारांशिवप्रेमदारान् ॥ २४ ॥
सुधासिन्धुसारे चिदानन्दनीरे –समुत्फुल्लनीपे सुरत्रान्तरीपे ।
मणिव्यूहसाले स्थिते हैमशाले –मनोजारिवामे निषण्णं मनो मे ॥ २५ ॥
दृगन्ते विलोला सुगन्धीषुमाला –प्रपञ्चेन्द्रजाला विपत्सिन्धुकूला ।
मुनिस्वान्तशाला नमल्लोकपाला –हृदि प्रेमलोलामृतस्वादुलीला ॥ २६ ॥
जगज्जालमेतत्त्वयैवाम्ब सृष्टं –त्वमेवाद्य यासीन्द्रियैरर्थजालम् ।
त्वमेकैव कर्त्री त्वमेकैव भोक्त्री –न मे पुण्यपापे न मे बन्धमोक्षौ ॥ २७ ॥
इति प्रेमभारेण किञ्चिन्मयोक्तं –न बुध्वैव तत्त्वं मदीयं त्वदीयं ।
विनोदाय बालस्य मौर्ख्यं हि मात-स्तदेतत्प्रलापस्तुतिं मे गृहाण ॥ २८ ॥
देवी षट्कम्
अम्ब शशिबिम्बवदने कम्बुग्रीवे कठोरकुचकुम्भे । अम्बरसमानमध्ये शम्बररिपुवैरिदेवि मां पाहि ॥ १ ॥
कुन्दमुकुलाग्रदन्तां कुङ्कुमपङ्केन लिप्तकुचभारां । आनीलनीलदेहामम्बामखिलाण्डनायकीं वन्दे ॥ २ ॥
सरिगमपधनिसतान्तां वीणासङ्क्रान्तचारुहस्तां ताम् ।शान्तां मृदुलस्वान्तां कुचभरतान्तां नमामि शिवकान्ताम् ॥३॥
अरटतटघटिकजूटीताडिततालीकपालताटङ्कां । वीणावादनवेलाकम्पितशिरसं नमामि मातङ्गीम् ॥ ४ ॥
वीणारसानुषङ्गं विकचमदामोदमाधुरीभृङ्गम् । करुणापूरितरङ्गं कलये मातङ्गकन्यकापाङ्गम् ॥ ५ ॥
दयमानदीर्घनयनां देशिकरूपेण दर्शिताभ्युदयाम् । वामकुचनिहितवीणां वरदां सङ्गीत मातृकां वन्दे ॥ ६ ॥
माणिक्यवीणा मुपलालयन्तीं मदालसां मञ्जुलवाग्विलासाम् । माहेन्द्रनीलद्युतिकोमलाङ्गीं मातङ्गकन्यां मनसा स्मरामि ॥७ ॥
इति श्रीकालिकायां देवीषट्कम् ॥
नवरत्नमालिका
हारनूपुरकिरीटकुण्डलविभूषितावयवशोभिनीं कारणेशवरमौलिकोटिपरिकल्प्यमानपदपीठिकाम् ।
कालकालफणिपाशबाणधनुरङ्कुशामरुणमेखलां फालभूतिलकलोचनां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ १ ॥
गन्धसारघनसारचारुनवनागवल्लिरसवासिनीं सान्ध्यरागमधुराधराभरणसुन्दराननशुचिस्मिताम् ।
मन्धरायतविलोचनाममलबालचन्द्रकृतशेखरीं इन्दिरारमणसोदरीं मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ २ ॥
स्मेरचारुमुखमण्डलां विमलगण्डलम्बिमणिमण्डलां हारदामपरिशोभमानकुचभारभीरुतनुमध्यमाम् ।
वीरगर्वहरनूपुरां विविधकारणेशवरपीठिकां मारवैरिसहचारिणीं मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ ३ ॥
भूरिभारधरकुण्डलीन्द्रमणिबद्धभूवलयपीठिकां वारिराशिमणिमेखलावलयवह्निमण्डलशरीरिणीम् ।
वारिसारवहकुण्डलां गगनशेखरीं च परमात्मिकां चारुचन्द्रविलोचनां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ ४ ॥
कुण्डलत्रिविधकोणमण्डलविहारषड्दलसमुल्लसत्पुण्डरीकमुखभेदिनीं च प्रचण्डभानुभासमुज्ज्वलाम् ।
मण्डलेन्दुपरिवाहितामृततरङ्गिणीमरुणरूपिणीं मण्डलान्तमणिदीपिकां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ ५ ॥
वारणाननमयूरवाहमुखदाहवारणपयोधरां चारणादिसुरसुन्दरीचिकुरशेकरीकृतपदाम्बुजाम् ।
कारणाधिपतिपञ्चकप्रकृतिकारणप्रथममातृकां वारणान्तमुखपारणां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ ६ ॥
पद्मकान्तिपदपाणिपल्लवपयोधराननसरोरुहां पद्मरागमणिमेखलावलयनीविशोभितनितम्बिनीम् ।
पद्मसम्भवसदाशिवान्तमयपञ्चरत्नपदपीठिकां पद्मिनीं प्रणवरूपिणीं मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ ७ ॥
आगमप्रणवपीठिकाममलवर्णमङ्गलशरीरिणीं आगमावयवशोभिनीमखिलवेदसारकृतशेखरीम् ।
मूलमन्त्रमुखमण्डलां मुदितनादबिन्दुनवयौवनां मातृकां त्रिपुरसुन्दरीं मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ ८ ॥
कालिकातिमिरकुन्तलान्तघनभृङ्गमङ्गलविराजिनीं चूलिकाशिखरमालिकावलयमल्लिकासुरभिसौरभाम् ।
वालिकामधुरगण्डमण्डलमनोहराननसरोरुहां कालिकामखिलनायिकां मनसि भावयामि परदेवताम् ॥ ९ ॥
नित्यमेव नियमेन जल्पतां – भुक्तिमुक्तिफलदामभीष्टदाम् ।
शङ्करेण रचितां सदा जपेन्नामरत्ननवरत्नमालिकाम् ॥ १० ॥
श्री मनसा देवी द्वादशनाम स्तोत्रम् (नागभय निवरण स्तोत्रम्)
जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी । वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ॥ १ ॥
जरत्कारुप्रियास्तीकमाता विषहरीती च । महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ॥ २ ॥
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले च यः पठेत् । तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ॥ ३ ॥
नागभीते च शयने नागग्रस्ते च मन्दिरे । नागक्षते नागदुर्गे नागवेष्टितविग्रहे ॥ ४ ॥
[ ॥ फलश्रुति ॥ ]
इदं स्तोत्रम् पठित्वा तु मुच्यते नात्र संशयः । नित्यं पठेद्यस्तं दृष्ट्वा नागवर्गः पलायते ॥ ५ ॥
दशलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् । स्तोत्रम् सिद्धिं भवेद्यस्य स विषं भोक्तुमीश्वरः ॥ ६ ॥
नागौघं भूषणं कृत्वा स भवेन्नागवाहनः । नागासनो नागतल्पो महासिद्धो भवेन्नरः ॥ ७ ॥
इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे मनसादेवी द्वादशनाम स्तोत्रम् ॥
श्री मनसा देवी स्तोत्रम्
महेन्द्र उवाच ।
देवि त्वां स्तोतुमिच्छामि साध्वीनां प्रवरां वराम् । परात्परां च परमां न हि स्तोतुं क्षमोऽधुना ॥ १ ॥
स्तोत्राणां लक्षणं वेदे स्वभावाख्यानतः परम् । न क्षमः प्रकृतिं वक्तुं गुणानां तव सुव्रते ॥ २ ॥
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं कोपहिंसाविवर्जिता । न च शप्तो मुनिस्तेन त्यक्तया च त्वया यतः ॥ ३ ॥
त्वं मया पूजिता साध्वि जननी च यथाऽदितिः । दयारूपा च भगिनी क्षमारूपा यथा प्रसूः ॥ ४ ॥
त्वया मे रक्षिताः प्राणा पुत्रदाराः सुरेश्वरि । अहं करोमि त्वां पूज्यां मम प्रीतिश्च वर्धते ॥ ५ ॥
नित्यं यद्यपि पूज्या त्वं भवेऽत्र जगदम्बिके । तथाऽपि तव पूजां वै वर्धयामि पुनः पुनः ॥ ६ ॥
ये त्वामाषाढसङ्क्रान्त्यां पूजयिष्यन्ति भक्तितः । पञ्चम्यां मनसाख्यायां मासान्ते वा दिने दिने ॥ ७ ॥
पुत्रपौत्रादयस्तेषां वर्धन्ते च धनानि च । यशस्विनः कीर्तिमन्तो विद्यावन्तो गुणान्विताः ॥ ८ ॥
ये त्वां न पूजयिष्यन्ति निन्दन्त्यज्ञानतो जनाः । लक्ष्मीहीना भविष्यन्ति तेषां नागभयं सदा ॥ ९ ॥
[ ॥ स्तोत्रम् ॥ ]
त्वं स्वर्गलक्ष्मीः स्वर्गे च वैकुण्ठे कमला कला । नारायणांशो भगवान् जरत्कारुर्मुनीश्वरः ॥ १० ॥
तपसा तेजसा त्वां च मनसा ससृजे पिता । अस्माकं रक्षणायैव तेन त्वं मनसाभिधा ॥ ११ ॥
मनसा देवितुं शक्ता चात्मना सिद्धयोगिनी । तेन त्वं मनसादेवी पूजिता वन्दिता भवे ॥ १२ ॥
यां भक्त्या मानसा देवाः पूजयन्त्यनिशं भृशम् । तेन त्वां मनसादेवीं प्रवदन्ति पुराविदः ॥ १३ ॥
सत्त्वरूपा च देवी त्वं शश्वत्सत्त्वनिषेवया । यो हि यद्भावयेन्नित्यं शतं प्राप्नोति तत्समम् ॥ १४ ॥
[ ॥ फलश्रुति ॥ ]
इन्द्रश्च मनसां स्तुत्वा गृहीत्वा भगिनीं च ताम् । निर्जगामस्व भवनं भूषावास परिच्छदाम् ॥ १५ ॥
पुत्रेण सार्धं सा देवी चिरं तस्थौ पितुर्गृहे । भ्रातृभिः पूजिता शश्वन्मान्यावन्द्या च सर्वतः ॥ १६ ॥
गोलोकात्सुरभी ब्रह्मंस्तत्रागत्य सुपूजिताम् । इदं स्तोत्रम् पुण्यबीजं तां सम्पूज्य च यः पठेत् ॥ १७ ॥
तस्य नागभयं नास्ति तस्यवंशे भवेच्च यः । विषं भवेत्सुधातुल्यं सिद्धस्तोत्रम् यदा पठेत् ॥ १८ ॥
पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धस्तोत्रो भवेन्नरः । सर्पशायी भवेत्सोऽपि निश्चितं सर्पवाहनः ॥ १९ ॥
इति श्रीब्रह्मवैवर्तेमहापुराणे द्वितीयेप्रकृतिखण्डे मनसोपाख्याने महेन्द्र कृत श्रीमनसादेवी स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥